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श्रमण-धर्म
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है। आचार्य के पश्चात् श्रमण-संघ के अधिकारी मुनियों में दूसरा स्थान उपाध्याय का है, जिनका कार्य शिक्षा की व्यवस्था करना है। उपाध्याय के पश्चात् क्रमश: गणी, प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक, रात्निक और रत्नाधिक का स्थान आता है। ये सभी संघ के विभिन्न उपविभागों की व्यवस्थाओं को देखते हैं। व्यवस्था की दृष्टि से संघ अनेक उपविभागों में बँटा होता है, जिन्हें गच्छ, कुल और गण कहा जाता है। गच्छ शब्द का शब्दिक-अर्थ हैसाथ-साथ रहने वाले। जितने साधु एक साथ रहकर विहार एवं चातुर्मास आदि करते हैं, उनका समूह गच्छ कहा जाता है। गच्छ में साधुओं की संख्या अधिक होने पर उन्हें विभिन्न वर्गों (संघाडों) में विभाजित किया जाता है। सामान्यतया, एक वर्ग में 2 से 4 साधु होते हैं। वर्गनायक गणावच्छेदक कहा जाता है। गच्छनायक गच्छाचार्य या प्रवर्तक कहा जाता है। विभिन्न गच्छों का समूह कुल कहा जाता है। सामान्यतया, एक ही आचार्य के शिष्यों एवं प्रशिष्यों का समूह कुल कहा जाता है। कुल का अधिपति कुलाचार्य कहा जाता है। एक गण में आचार-विचार संबंधी मान्यताओं की एकरूपता होती है। उन सभी कुलों से, जो एक ही प्रकार की आचार-विचार-प्रणाली का अनुसरण करते हैं, मिलकर गण बनता है। गण का अधिपति गणी, गणधर या गणाचार्य कहा जाता है। अनेक गणों से मिलकर संघ बनता है। संघ का प्रधान संघाचार्य या प्रधानाचार्य कहा जाता है। जैन-आगमों में संघ के विभिन्न अधिकारियों की योग्यताओं एवं उनके सामाजिक-दायित्वों का विवरण है। यद्यपि विभिन्न आगमों (ग्रन्थों) में इस विषय में एकरूपता नहीं है, अतः कुछ पदों एवं उनके अधिकारों एवं दायित्वों के संबंध में स्पष्ट विभेद करना सम्भव नहीं। परवर्ती युग में संघ की केन्द्रीय-व्यवस्था के समाप्त हो जाने के फलस्वरूप प्रधानाचार्य या संघाचार्य का पद समाप्त हो गया और प्रत्येक गण एवं गच्छ अपनी-अपनी स्वतंत्र रूप में व्यवस्था करने लगा, अतएव गणी, गणधर,गच्छाचार्य तथा प्रधानाचार्य के पदों में कोई स्पष्ट विभेद नहीं रह गया।
बौद्ध एवं जैनसंघ-व्यवस्था में अन्तर-जैन श्रमण-संघ की व्यवस्था में बुद्ध की संघीय गणतंत्रात्मक शासन-प्रणाली की अपेक्षा राजतंत्रीय शासन-प्रणाली का प्रभाव अधिक रहा है। यद्यपिजैन और बौद्ध-दोनों ही परम्पराएं श्रमण-संघ अथवा भिक्षु-संघको महत्व देती हैं, तथापि जहां जैन-परम्परा में आचार्य के रूप में व्यक्ति का शासन स्वीकार किया गया है, वहाँ बौद्ध-परम्परा में सदैव ही संघ-शासन का महत्व रहा है। जैन-परम्परा में अधिकांश महत्वपूर्ण निर्णय एवं दण्ड, प्रायश्चित्त आदि के कार्य आचार्य अथवा किसी वरिष्ठ पदाधिकारी के द्वारा सम्पन्न होते हैं, जबकि बौद्ध-परम्परा में ये सभी कार्य संघ ही करता है। बौद्ध-परम्परा में भिक्षु-संघ की व्यवस्था जनतांत्रिक है, उसमें सर्वोच्च सत्तासंघ
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