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________________ 406 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन अदत्त वस्तु ग्रहण करता है, तो पाचित्तिय अथवा पाराजिक-अपराध का दोषी माना जाता है। इसी प्रकार, ब्रह्मचर्य संबंधी विभिन्न नियमों के तोड़ने पर बौद्ध-भिक्षु अपराध की गुरुता के अनुपात में संघादिशेष, अनियत धम्म अथवा पाचित्तिय धम्म का दोषी माना जाता है, विस्तार-भय से यहाँ उसकी चर्चा नहीं कर रहे हैं। जैन-परम्परा में जो इक्कीस शबल-दोष माने गए हैं, उनमें से बहुत कुछ बौद्ध-परम्परा में भी स्वीकृत रहे हैं। केवल औद्देशिक और आधाकर्म आदि का विस्तार बौद्ध-परम्परा में अनुपलब्ध है। सचित्त जल और भूमि का उपयोग भी बौद्ध-परम्परा में वर्जित है। अनाचीर्ण संबंधी नियमों में त्रिभक्त, स्नान, गन्ध, माल्य, सन्निधि, किमिच्छक-दान, संप्रश्न, देह-प्रलोकन, अष्टापद-आसंदी आदि का निषेध बौद्ध-परम्परा में भी है। बौद्ध - परम्परा में त्रिभक्त को निषिद्ध माना गया है। भिक्षु के लिए सामान्यतया एक बार भोजन करने का विधान है। इसी प्रकार, स्नान के सम्बन्ध में बौद्ध-परम्परा में यह नियम है कि गर्मी की ऋतु एवं बीमारी आदि को छोड़कर पन्द्रह दिन की अवधि से पूर्व स्नान करना पाचित्तिय-दोष है। इसी प्रकार; गन्ध, माल्य आदि का उपयोग भी निषिद्ध है। दान-शाला से भोजन लेना भी निषिद्ध है, केवल भिक्षु एक समय दानशालाओं से भोजन प्राप्त कर सकता है। सन्निधि के संबंध में बौद्ध-परम्परा में नियम यह है कि भिक्षु औषधि के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का संग्रह दूसरे दिन के लिए भी नहीं कर सकता । औषधियों को भी सात दिन से अधिक रखना निसग्गीय या पाचित्तिय-दोष माना गया है। गर्मी के लिए आग जलाना बौद्ध-परम्परा में पाचित्तिय-दोष माना गया है। 178 इस प्रकार, बौद्ध-परम्परा में भिक्षु-जीवन के अनेक नियम जैन-परम्परा के समान हैं। आहार, वस्त्र और आवास संबंधी अनेक नियमों में भी समानताखोजी जा सकती है। बौद्ध-परम्परा में कुछ नियम ऐसे भी हैं, जो जैन-परम्परा में नहीं हैं। संघ-व्यवस्था जैन आचार-दर्शन में दो प्रकार के श्रमणों का वर्णन उपलब्ध है - (1) जिनकल्पीमुनि और (2) स्थविरकल्पी-मुनि । जिनकल्पी-मुनि एकाकी रहकर साधना करते हैं, जबकि स्थविरकल्पी-मुनि संघ में रहकर साधना करते हैं। स्थविरकल्पी-मुनि के लिए संघ से पृथक् रहने पर प्रायश्चित्त का विधान है। संघ के दो प्रमुख विभाग हैं - (1) श्रमण-संघ और (2) श्रमणी-संघ। यद्यपि जैन-परम्परा में श्रमण और श्रमणियों के पृथक्-पृथक् संघों का विधान है, तथापि श्रमणी-संघ केवल आन्तरिक व्यवस्था को छोड़कर सामान्यतया श्रमण-संघ के निर्देशन में ही चलता है। श्रमण एवं श्रमणी के दोनों संघों में आचार्य का स्थान ही सर्वोपरि है। दोनों संघ आचार्य की आज्ञा में ही रहते हैं। आचार्य की योग्यताओं के विषय में जैन-आगमों में विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। आचार्य का कार्य संघ का संचालन करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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