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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
सुख और दुःख जैसी विरोधी स्थितियों में भी सदैव प्रशान्त रहता है, अर्थात् समभावरखता है, वह परमात्मा में स्थित है। जिसकी आत्मा तत्त्वज्ञान एवं आत्मज्ञान से तृप्त है, जो अनासक्त एवं संयमी है, जो लौह एवं कांचन-दोनों में समानभाव रखता है, वही योगी योग (समत्व-योग) से युक्त है, ऐसा कहा जाता है। जो व्यक्ति सुहृदय, मित्र, शत्रु, तटस्थ, मध्यस्थ, द्वेषी एवं बन्धु में तथाधर्मात्मा एवं पापियों में समभाव रखता है, वहीअतिश्रेष्ठ है, अथवा वही मुक्ति को प्राप्त करता है। जो सभी प्राणियों को अपनी आत्मा में एवं अपनी आत्माको सभी प्राणियों में देखता है, अर्थात् सभी को समभाव से देखता है, वही युक्तात्मा है। जो सुख-दुःखादि अवस्थाओं में सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समभाव से देखता है, वही परमयोगी है। 9 जो अपनी इन्द्रियों के समूह को भलीभांति संयमित करके सर्वत्र समत्वबुद्धि से सभी प्राणियों के कल्याण में निरत है, वह परमात्मा को ही प्राप्त कर लेता है। ० जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथाजो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों में फल का त्यागी है, वह भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है। जो पुरुष शत्रु-मित्र में औरमान-अपमान में सम है तथा सदी-गर्मी और सुख-दुःखादि द्वन्द्रों में सम है और सब संसार में आसक्ति से रहित है तथा जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला और मननशील है, अर्थात् ईश्वर के स्वरूप का निरन्तरमनन करने वाला है एवं जिस किस प्रकार से भी मात्र शरीर का निर्वाह होने में सदा ही सन्तुष्ट है और रहने के स्थान में ममता से रहित है, वह स्थिर--बुद्धिवाला, भक्तिमान् पुरुष मुझे प्रिय है। इस प्रकार जानकर, जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में नाशरहित परमेश्वर को, समभाव से स्थित देखता है, वह वही देखता है, क्योंकि वह पुरुष सबमें समभावसे स्थित हुए परमेश्वर को देखता हुआअपने द्वारा आपको नष्ट नहीं करता है, अर्थात् शरीर का नाश होने से अपनी । आत्मा का नाश नहीं मानता है, इससे वह परमगति को प्राप्त होता है।
समत्वके अभाव में ज्ञान यथार्थ ज्ञान नहीं है, चाहे वह ज्ञान कितना ही विशाल क्यों न हो। वह ज्ञान योग नहीं है। समत्व-दर्शन यथार्थ ज्ञान का अनिवार्य अंग है। समदर्शी ही सच्चा पण्डित या ज्ञानी है। ज्ञान की सार्थकता और ज्ञान का अन्तिम लक्ष्य समत्व-दर्शन है। समत्वमय ब्रह्म या ईश्वर, जो हम सब में निहित है, उसका बोध कराना ही ज्ञान और दर्शन की सार्थकताहै। इसी प्रकार, समत्व-भावनाके उदय से भक्ति का सच्चा स्वरूप प्रकट होता है। जो समदर्शी होता है, वह परम भक्ति को प्राप्त करता है। गीता के अठारहवें अध्याय में कृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि जो समत्व-भाव में स्थित होता है, वह मेरी परमभक्ति को प्राप्त करता है। बारहवें अध्याय में सच्चे भक्त का लक्षण भी समत्व-वृत्ति का उदय माना गया है। जब समत्वभाव का उदय होता है, तभी व्यक्ति का कर्म अकर्म बनता है। समत्व-वृत्ति से युक्त होकर किया गया कोई भी आचरण बन्धनकारी नहीं होता, उस आचरण से व्यक्ति
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