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समत्वयोग
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गीता में समत्व का अर्थ ____ गीता के समत्व-योग को समझने के लिए यह देखना होगा कि समत्व का गीता में क्याअर्थ है ? आचार्य शंकर लिखते हैं किसमत्वकाअर्थतुल्यता है, आत्मवत्-दृष्टि है, जैसे मुझे सुख प्रिय एवं अनुकूल है और दुःख अप्रिय एवं प्रतिकूल है। इस प्रकार, जो सब प्राणियों में अपने ही समान सुख एवं दुःख को तुल्यभाव से अनुकूल एवं प्रतिकूल रूप में देखता है, किसी के भी प्रतिकूल आचरण नहीं करता, वही समदर्शी है। सभी प्राणियों के प्रतिआत्मवत्-दृष्टि रखना समत्व है, लेकिन समत्वन केवल तुल्यदृष्टि याआत्मवत्-दृष्टि है, वरन् मध्यस्थदृष्टि, वीतराग-दृष्टि एवं अनासक्त-दृष्टि भी है। सुख-दुःख आदि जीवन के सभी अनुकूल और प्रतिकूल संयोगों में समभाव रखना, मान और अपमान, सिद्धि और असिद्धि में मन का विचलित नहीं होना, शत्रु और मित्र-दोनों में माध्यस्थवृत्ति, आसक्ति और राग-द्वेष का अभाव ही समत्वयोग है। वैचारिक-दृष्टि से पक्षाग्रह एवं संकल्प-विकल्पों से मानस का मुक्त होना ही समत्व है। गीता में समत्व-योग की शिक्षा
गीता में अनेक स्थलों पर समत्व-योग की शिक्षा दी गई है। श्रीकृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन ! जो सुख-दुःख में समभाव रखता है, उस धीर (समभावी) व्यक्ति को इन्द्रियों के सुख-दुःखादि विषय व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष या अमृतत्व का अधिकारी होता है। सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि में समत्वभाव धारण कर, फिर यदि तू युद्ध करेगा, तो पाप नहीं लगेगा, क्योंकि जो समत्व से युक्त होता है, उससे कोई पाप ही नहीं होता है। हे अर्जुन! आसक्ति का त्याग कर, सिद्धि एवं असिद्धि में समभाव रखकर, समत्व से युक्त हो, तू कर्मों का आचरण कर, क्योंकि यह समत्वही योग है। समत्व-बुद्धियोगसे सकाम-कर्म अति तुच्छ है, इसलिए हे अर्जुन!, समत्व-बुद्धियोग का आश्रय ले, क्योंकि फल की वासना, अर्थात् आसक्ति रखनेवाले अत्यन्त दीन है। समत्व-बुद्धि से युक्त पुरुष पाप और पुण्य-दोनों से अलिप्त रहता है (अर्थात् समभाव होने पर कर्म बन्धनकारक नहीं होते), इसलिए समत्व-बुद्धियोग के लिए ही चेष्टा कर, समत्वबुद्धिरूप योग ही कर्म-बन्धन से छूटने का उपाय है, पाप-पुण्य से बचकर अनासक्त एवं साम्यबुद्धि से कर्म करने की कुशलताही योग है। जो स्वाभाविक उपलब्धियों में सन्तुष्ट है, राग-द्वेष एवं ईर्ष्या से रहित निर्द्वन्द्व एवं सिद्धि-असिद्धि में समभाव से युक्त है, वह जीवन के सामान्य व्यापारों को करते हुए भी बन्धन में नहीं आता है। हे अर्जुन! अनेक प्रकार के सिद्धान्तों से विचलित तेरी बुद्धि जब समाधियुक्त हो निश्चल एवं स्थिर हो जाएगी, तब तू समत्वयोग को प्राप्त हो जाएगा। जो भी प्राणी अपनी वासनात्मक-आत्मा को जीतकर शीत और उष्ण, मान और अपमान,
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