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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
3. गीता के छठवें अध्याय में परमयोगी के स्वरूप के वर्णन में यह धारणा और भी स्पष्ट हो जाती है। गीताकार जब कभी ज्ञान, कर्म या भक्तियोग में तुलना करता है, तो वह उनकी तुलनात्मक श्रेष्ठता या कनिष्ठता का प्रतिपादन करता है, जैसे कर्म-संन्यास से कर्मयोग श्रेष्ठ है", भक्तों में ज्ञानी-भक्त मुझे प्रिय हैं " " |
लेकिन, वह न तो ज्ञानयोगी को परमयोगी कहता है, न कर्मयोगी को परमयोगी है और भक्त को ही परमयोगी कहता है, वरन् उसकी दृष्टि में परमयोगी तो वह है, जो सर्वत्र समत्व का दर्शन करता है | गीताकार की दृष्टि में योगी की पहचान तो समत्व ही है। वह कहता है, "योग से युक्त आत्मा वही है, जो समदर्शी है। 63 समत्व की साधना करनेवाला योगी ही सच्चा योगी है। चाहे साधन के रूप में ज्ञान, कर्म या भक्ति हो, यदि उनसे समत्व नहीं आता, तो वे योग नहीं हैं।
4. गीता का यथार्थ योग समत्व-योग है, इस बात की सिद्धि का एक अन्य प्रमाण भी है। गीता के छठवें अध्याय में अर्जुन स्वयं ही यह कठिनाई उपस्थित करता है कि है कृष्ण! आपने यह समत्वभाव (मन की समता) रूप योग कहा है, मुझे मन की चंचलता के कारण इस समत्वयोग का कोई स्थिर आधार दिखलाई नहीं देता है, अर्थात् मन की चंचलता के कारण इस समत्व को पाना सम्भव नहीं है । इससे यही सिद्ध होता है कि गीतकार का मूल उपदेश तो इसी समत्व -- व-योग का है, लेकिन यह समत्व मन की चंचलता
कारण सहज नहीं होता है, अतः मन की चंचलता को समाप्त करने के लिए ज्ञान, कर्म, तप, ध्यान और भक्ति के साधन बताए गए हैं। आगे श्रीकृष्ण जब यह कहते हैं कि हे अर्जुन ! तपस्वी, ज्ञानी, कर्मकाण्डी सभी से योगी अधिक है, अतः तू योगी हो जा', तो यह और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है कि गीताकार का उद्देश्य ज्ञान, कर्म, भक्ति अथवा तप की साधना का उपदेश देना मात्र नहीं है। यदि ज्ञान, कर्म, भक्ति या तप- रूप साधना का प्रतिपादन करना ही गीताकार का अन्तिम लक्ष्य होता, तो अर्जुन को ज्ञानी, तपस्वी, कर्मयोगी या भक्त बनने का उपदेश दिया जाता, न कि योगी बनने का। दूसरे, यदि गीताकार का योग से तात्पर्य कर्मकौशल या कर्मयोग, ज्ञानयोग, तप (ध्यान) योग अथवा भक्तियोग ही होता, तो इनमें पारस्परिक तुलना होनी चाहिए थी, लेकिन इन सबसे भिन्न एवं श्रेष्ठ यह योग कौनसा है, जिसके श्रेष्ठत्व का प्रतिपादन गीताकार करता है एवं जिसे अंगीकार करने का अर्जुन को उपदेश देता है ? वह योग समत्व-योग ही है, जिसके श्रेष्ठत्व का प्रतिपादन किया गया है। समत्व - योग में योग शब्द का अर्थ 'जोड़ना' नहीं है, क्योंकि ऐसी अवस्था में समत्व - योग भी साधन - योग होगा, साध्य-योग नहीं। ध्यान या समाधि भी समत्व - योग का साधन है 16
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