________________
सभी साधन योग है, साध्य-योग नहीं, लेकिन समत्वयोग साध्य योग है। यह प्रश्न फिर भी उठाया जा सकता है कि समत्व-योग को ही साध्य-योग क्यों माना जाए, वह भी साधनयोग क्यों नहीं हो सकता है ? इसके लिए हमारे तर्क इस प्रकार हैं
1. ज्ञान, कर्म, भक्ति और ध्यान सभी समत्व' के लिए होते हैं, क्योंकि यदिज्ञान, कर्म, भक्ति या ध्यान स्वयं साध्य होते, तो इनकी यथार्थता या शुभत्व स्वयं इनमें ही निहित होता, लेकिन गीता यह बताती है कि बिना समत्व के ज्ञान, यथार्थ ज्ञान नहीं बनता, जो समत्वदृष्टि रखता है, वही ज्ञानी है 3, बिना समत्व के कर्म अकर्म नहीं बनता। समत्व के अभावमें कर्म का बन्धकत्व बना रहता है, लेकिन जो सिद्धि और असिद्धि में समत्व से युक्त होता है, उसके लिए कर्म बन्धक नहीं बनते"। इसी प्रकार, वह भक्त भी सच्चा भक्त नहीं है, जिसमें समत्व का अभाव है, समत्वभाव से यथार्थ भक्ति की उपलब्धि होती है।
समत्व के आदर्श से युक्त होने पर ही ज्ञान, कर्म और भक्ति अपनी यथार्थता को पाते हैं। समत्व वह 'सार' है, जिसकी उपस्थिति में ज्ञान, कर्म और भक्ति का कोई मूल्य या अर्थ है। वस्तुतः, ज्ञान, कर्म और भक्ति जब तक समत्व से युक्त नहीं होते हैं, उनमें समत्व की अवधारणा नहीं होती है, तब तक ज्ञान मात्र ज्ञान रहता है, वह ज्ञानयोग नहीं होता, कर्म मात्र कर्म रहता है, कर्मयोग नहीं बनता और भक्ति भी मात्र श्रद्धा या भक्ति ही रहती है, वह भक्तियोग नहीं बनती है, क्योंकि इन सबमें हममें निहित परमात्मा से जोड़ने की सामर्थ्य नहीं आती। 'समत्व' ही वह शक्ति है, जिससे ज्ञान ज्ञानयोग के रूप में, भक्ति भक्तियोग के रूप में और कर्म कर्मयोग के रूप में बदल जाता है। जैन-परम्परा में भी ज्ञान, दर्शन (श्रद्धा) और चारित्र (कर्म) जब तक समत्व से युक्त नहीं होते, सम्यक् नहीं बनते और जब तक ये सम्यक् नहीं बनते, तब तक मोक्षमार्ग के अंग नहीं होते हैं।
__2. गीता के अनुसार, मानव का साध्य परमात्मा की प्राप्ति है और गीता का परमात्माया ब्रह्म 'सम' है जिनका मन 'समभाव' में स्थित है, वे तो संसार में रहते हुएभी मुक्त हैं, क्योंकि ब्रह्म भी निर्दोष एवं सम है। वे उसी समत्व में स्थित हैं, जो ब्रह्म है और इसलिए वे ब्रह्म में ही हैं।” इसे स्पष्ट रूप में यों कह सकते हैं कि जो 'समत्व में स्थित हैं, वे ब्रह्म में स्थित हैं, क्योंकि 'सम' ही ब्रह्म है। गीता में ईश्वर के इस समत्व-रूप का प्रतिपादन है। नौवें अध्याय में कृष्ण कहते हैं कि मैं सभी प्राणियों में 'सम' के रूप में स्थित हूँ। तेरहवें अध्याय में कहा है कि सम-रूप परमेश्वर सभी प्राणियों में स्थित है, प्राणियों के विनाश से भी उसका नाश नहीं होता है, जो इस समत्व के रूप में उसको देखता है, वही वास्तविक ज्ञानी है, क्योंकि सभी में समरूप में स्थित परमेश्वर को समभाव से देखता हुआ वह अपने द्वारा अपना ही घात नहीं करता, अर्थात् अपने समत्वमय या वीतराग स्वभाग को नष्ट नहीं होने देता और मुक्ति प्राप्त कर लेता है।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org