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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
पर समायोजन करना होता है- 1. चैतसिक (आध्यात्मिक) स्तर पर और 2. भौतिक स्तर पर। गीताकार द्वारा प्रस्तुत योग की उपर्युक्त दो व्याख्याएँ क्रमशः इन दो स्तरों के सन्दर्भ में है। वैचारिक या चैतसिक-स्तर पर जिस योग की साधना व्यक्तिको करनी है, वह समत्वयोग है। भौतिक-स्तर पर जिस योग की साधना का उपदेशगीता में है, वह कर्म-कौशल का योग है।
तिलक ने गीता और अन्य ग्रन्थों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि योग शब्द का अर्थ युक्ति, उपाय और साधन भी है। चाहे हम योगशब्द का अर्थ जोड़ने वाले स्वीकारें या तिलक के अनुसार युक्तिया उपाय माने, दोनों ही स्थितियों में योगशब्दसाधन के अर्थ में ही प्रयुक्त किया जाता है, लेकिन योगशब्द केवल साधन के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। जब हम योग शब्द का अर्थ मनःस्थिरता करते हैं, तो वह साधन के रूप में नहीं होता है, वरन् वह स्वतः साध्य ही होता है। यह मानना भ्रमपूर्ण होगा कि गीता में चित्त-समाधि या समत्वके अर्थ में योग शब्द का प्रयोग नहीं है। स्वयं तिलकजी ही लिखते हैं कि गीता में योग, योगी, अथवा योग शब्द से बने हुए सामासिक-शब्द लगभग अस्सी बार आए हैं, परन्तु चार पाँचस्थानों के सिवा (6/12-23) योग शब्द से पातंजल योग' (योगश्चित्तवृत्ति निरोधः) अर्थ कहीं भी अभिप्रेत नहीं है- सिर्फ युक्ति, साधन, कुशलता, उपाय, जोड़, मेल, यही अर्थ कुछ हेर-फेर से समूची गीता में पाए जाते हैं। इससे इतना तो सिद्ध हो ही जाता है कि गीता में योग शब्द मन की स्थिरता या समत्व के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है, साथ ही यह भी सिद्ध हो जाता है कि गीता दो अर्थों में योग शब्द का उपयोग करती है, एक साधन के अर्थ में, दूसरे, साध्य के अर्थ में। जब गीता योगशब्द की व्याख्या 'योगः कर्मसु कौशलम्' के अर्थ में करती है, तो यह साधन-योग की व्याख्या है। वस्तुतः, हमारे भौतिक-स्तर पर अथवा
चेतना और भौतिक जगत् (व्यक्ति और वातावरण) के मध्य जिस समायोजन की आवश्यकता है, वहाँ पर योगशब्दका यही अर्थ विवक्षित है। तिलक भी लिखते हैं, एक ही कर्म को करने के अनेक योग या उपाय हो सकते हैं, परन्तु उनमें से जो उपाय या साधन उत्तम हो, उसी को योग कहते हैं। योगः कर्मसु कौशलम् की व्याख्या भी यही कहती है कि कर्म में कुशलता योग है। किसी क्रिया या कर्म को कुशलतापूर्वक सम्पादित करना योग है। इस व्याख्या से यह भी स्पष्ट है कि इसमें योग कर्म का एक साधन है, जो उसकी कुशलता में निहित है, अर्थात् योग कर्म के लिए है। गीता की योग शब्द की दूसरी व्याख्या समत्वं योग उच्यते' का सीधा अर्थ यही है कि 'समत्व को योग कहते हैं।' यहाँ पर योग साधन नहीं, साध्य है। इस प्रकार, गीता योग शब्द की द्विविध व्याख्या प्रस्तुत करती है, एक साधन-योग की और दूसरी साध्य-योग की। इसका अर्थ यह भी है कि योग दो प्रकार का है- 1. साधन-योग और 2. साध्य-योग। गीता जब ज्ञानयोग, कर्मयोग या भक्तियोग का विवेचन करती है, तो ये उसकी साधन-योग की व्याख्याएँ हैं। साधन अनेक हो सकते हैं, ज्ञान, कर्म और भक्ति
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