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समत्वयोग
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पाप को प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार, ध्यान-योग का परमसाध्य भी वैचारिक-समत्व है। समाधि की एक परिभाषा यह भी हो सकती है कि जिसके द्वारा चित्त का समत्व प्राप्त किया जाता है, वह समाधि है।
ज्ञान, कर्म,भक्ति और ध्यान, सभीसमत्वको प्राप्त करने के लिए हैं। जब वेसमत्व ये युक्त हो जाते हैं, तब अपने सच्चे स्वरूप को प्रकट करते हैं। ज्ञान यथार्थ ज्ञान बन जाता है, भक्ति परमभक्ति हो जाती है, कर्म अकर्म हो जाता है और ध्यान निर्विकल्प समाधि का लाभ कर लेता है। 5.समत्वयोगका व्यवहार-पक्ष
समत्वयोग का तात्पर्य चेतना का संघर्ष याद्वन्द्व से ऊपर उठ जाना है। वह निराकुल, निर्द्वन्द्व और निर्विकल्प दशा का सूचक है। समत्व-योग जीवन के विविध पक्षों में एक ऐसा सांग-सन्तुलन है, जिसमें न केवल चैतसिक एवं वैयक्तिक-जीवन के संघर्ष समाप्त होते हैं, वरन् सामाजिक-जीवन के संघर्ष भी समाप्त हो जाते हैं, शर्त यह है कि समाज के सभी सदस्य उसकी साधना में प्रयत्नशील हों।
समत्वयोगमें इन्द्रियों अपना कार्य तो करती हैं, लेकिन उनमें भोगासक्ति नहीं होती है और न इन्द्रियों के विषयों की अनुभूति चेतना में राग और द्वेष को जन्म देती है। चिन्तन तो होता है, किन्तु उससे पक्षवाद और वैचारिक-दुराग्रहों का निर्माण नहीं होता। मन अपना कार्य तो करता है, लेकिन वह चेतना के सम्मुख जिसे प्रस्तुत करता है, उसे रंगीन नहीं बनाता है। आत्मा विशुद्धद्रष्टा होता है। जीवन के सभी पक्षअपना-अपना कार्य विशुद्ध रूप में बिना किसी संघर्ष के करते हैं।
मनुष्य का अपने परिवेश के साथ जो संघर्ष है, उसके कारण के रूप में जैविकआवश्यकताओं की पूर्ति इतनी प्रमुख नहीं है, जितनी की व्यक्ति की भोगासक्ति। संघर्ष की तीव्रता आसक्ति की तीव्रता के साथ बढ़ती जाती है। प्रकृत-जीवन जीना न तो इतना जटिल है और न इतना संघर्षपूर्ण ही । व्यक्ति का आन्तरिक-संघर्ष, जो उसकी विभिन्न आकांक्षाओं और वासनाओं के कारण होता है, उसके पीछे भी व्यक्ति की तृष्णा या आसक्ति ही प्रमुख है।
इसी प्रकार, वैचारिक-जगत् का सारा संघर्ष आग्रह, पक्ष या दृष्टि के कारण है। वाद, पक्ष या दृष्टि एक ओर सत्य को सीमित करती है, दूसरी ओर आग्रह से सत्य के अन्य अनन्त पहलू आवृत्त रह जाते हैं । भोगासक्ति स्वार्थों की संकीर्णता को जन्म देती है और आग्रहवृत्ति वैचारिक-संकीर्णता को जन्म देती है। संकीर्णता, चाहे वह हितों की हो या विचारों की, संघर्ष को जन्म देती है। समस्त सामाजिक-संघर्षों के मूल में यही हितों की या विचारों की संकीर्णता काम कर रही है।
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