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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
आचेलक्य-कल्प का अर्थ है-कम से कम वस्त्र धारण करना।
(2) औद्देशिक-कल्प - औद्देशिक-कल्प का अर्थ यह है कि मुनि को उनके निमित्त बनाए गए, लाए गए अथवा खरीदे गए आहार, पेय पदार्थ, वस्त्र, पात्र आदि उपकरण तथा निवासस्थान को ग्रहण नहीं करना चाहिए। इतना ही नहीं, किसी भी श्रमण अथवा श्रमणी के निमित्त बनाए गए या लाए गए पदार्थों का उपभोग सभी श्रमण और श्रमणियों के लिए वर्जित है। महावीर के पूर्व तक परम्परा यह थी कि जैन-श्रमण अपने स्वयं के लिए बनाए गए आहार आदि का उपभोग नहीं कर सकता था, लेकिन वह दूसरे श्रमणों के लिए बनाए गए आहार आदि का उपभोग कर सकता था। महावीर ने इस नियम को संशोधित कर किसी भी श्रमण के लिए बने औद्देशिक-आहार आदि पदार्थों का ग्रहण वर्जित माना।
(3) शय्या-कल्प - श्रमण अथवा श्रमणी जिस व्यक्ति के आवास (मकान) में निवास करे, उसके यहाँ से किसी भी पदार्थ का ग्रहण करना वर्जित है।
(4) राजपिंड-कल्प - राजभवन से राजा के निमित्त बनाए गए किसी भी पदार्थ का ग्रहण नहीं करना वर्जित है।
(5) कृतिकर्म-कल्प - दीक्षा-वय में ज्येष्ठ श्रमणों के आने पर उनके सम्मान में खड़ा हो जाना तथा यथाक्रम ज्येष्ठ मुनियों को वन्दना करना कृतिकर्म-कल्प है। यहाँ विशेष स्मरणीय यह है कि साध्वी के लिए अपने से कनिष्ठ श्रमणों को भी वन्दन करने का विधान है। एक दीक्षा-वृद्ध साध्वी के लिए भी नव दीक्षित श्रमण के वन्दन का विधान है। सम्भवतः, इसके पीछे हमारे देश की पुरुषप्रधान सभ्यता का ही प्रभाव है।
(6) व्रत-कल्प-सभी श्रमण एवं श्रमणियों को पंच महाव्रतों का अप्रमत्त-भाव से मन, वचन और काया के द्वारा पालन करना चाहिए। यह उनका व्रत-कल्प है। महावीर के पूर्व अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य-दोनों एक ही व्रत के अन्तर्गत थे। पार्श्वनाथ तक चातुर्याम-धर्म की व्यवस्था थी। महावीर ने पार्श्वनाथ के चातुर्याम के स्थान पर पंच महाव्रत का विधान किया ।163
(7) ज्येष्ठ-कल्प - जैन-आचारदर्शन में दीक्षा दो प्रकार की मानी गई है- 1. छोटी दीक्षा और 2. बड़ी दीक्षा । छोटी दीक्षा परीक्षारूप है। इसमें मुनिवेश धारण किया जाता है, लेकिन व्यक्ति को श्रमण संघ में प्रवेश नहीं दिया जाता है। व्यक्ति को योग्य पाने पर ही श्रमण-संघ में प्रवेश देकर बड़ी दीक्षा दी जाती है। प्रथम को सामायिक-चारित्र और दूसरे को छेदोपस्थापनाचारित्र कहा जाता है। छेदोपस्थापनाचारित्र के आधार पर ही मुनि को श्रमण संस्था में ज्येष्ठ अथवा कनिष्ठ माना जाता है। महावीर के पूर्व इन दो दीक्षाओं
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