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________________ श्रमण-धर्म 391 का माना गया है - (1) माधुकर - जिस प्रकार मधुमक्खी विभिन्न पुष्पों से उन्हें कोई कष्ट दिए बिना मधु एकत्रित करती है, उसी प्रकार दाता को कष्ट दिए बिना तीन, पांच या सात घरों से जो भिक्षा प्राप्त की जाती है, वह माधुकर है, (2) प्राक्प्रणीत-शयन-स्थान से उठने के पूर्व ही भक्तों के द्वारा भोजन के लिए प्रार्थना कर दी जाती है और उससे जो भोजन प्राप्त होता है, वह प्राक्प्रणीत है, (3) अयाचित-भिक्षाटन करने के लिए उठने के पूर्व ही कोई भोजन के लिए निमन्त्रित कर दे, (4) तात्कालिक - संन्यासी के पहुंचते ही जब कोई ब्राह्मण भोजन करने की सूचना दे दे और (5) उपपन्न-मठ में लाया गया पका भोजन। इन पाँचों में माधुकर भिक्षा-वृत्ति को ही श्रेष्ठ माना गया है । जैन-परम्परा की मधुकरीभिक्षावृत्ति वैदिक-परम्परा में भी स्वीकृत की गई है। संन्यासी को भिक्षा के लिए गाँव में केवल एक ही बार जाना चाहिए और वह भी तब, जबकि रसोईघर से धुआँ निकलना बन्द हो चुका हो, अग्नि बुझ चुकी हो, बर्तन आदि अलग रख दिए गए हों । 144 निक्षेपण और प्रतिस्थापना-समिति के सन्दर्भ में कोई निर्देश उपलब्ध नहीं होता, फिर भी इतना निश्चित है कि वैदिक-परम्परा का दृष्टिकोण इस सम्बन्ध में जैन-परम्परा का विरोधी नहीं है। इन्द्रियसंयम जैन आचार-दर्शन में इन्द्रियसंयम श्रमण-जीवन का अनिवार्य कर्त्तव्य माना गया है। यदि मुनि इन्द्रियों पर संयम नहीं रखेगा, तो वह नैतिक-जीवन में प्रगति नहीं कर सकेगा, क्योंकि अधिकांश पतित आचरणों का अवलम्बन व्यक्ति अपने इन्द्रिय-सुखों की प्राप्ति के लिए ही करता है। उत्तराध्ययनसूत्र में इसका सविस्तार विवेचन है कि किस प्रकार व्यक्ति इन्द्रिय-सुखों के पीछे अपने आचरण से पतित हो जाता है। 145 इन्द्रिय-संयम का यह अर्थ नहीं है कि इन्द्रियों को अपने विषयों के ग्रहण करने से रोक दिया जाए, वरन् यह है कि हमारे मन में इन्द्रियों के विषयों के प्रति जो रागद्वेष के भाव उत्पन्न होते हैं, उनका नियमन किया जाए। उत्तराध्ययनसूत्र एवं आचारागंसूत्र में इसका पर्याप्त स्पष्टीकरण किया गया है। 146 संक्षेप में, श्रमण (मुनि) का यह कर्त्तव्यमाना गया है कि वह अपनी पांचों इन्द्रियों पर संयम रखे और जहाँ भी संयम-मार्ग से पतन की संभावना हो, वहाँ इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति का संयम करे। जिस प्रकार कछुआ संकट की स्थिति में अपने अंगों का समाहरण कर लेता है, उसी प्रकार मुनि भी संयम के पतन के स्थानों में इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति का समाहरण करे।147 जो मुनि जल में कमल के समान इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति को करते हुए भी उनमें लिप्त नहीं होता, वह संसार के दुःखों से मुक्त हो जाता है। 148 बौद्ध एवं वैदिक-परम्परा में इन्द्रिय-निग्रह-बौद्ध - परम्परा में भी भिक्षु के लिए इन्द्रिय-संयम आवश्यक माना गया है। धम्मपद में बुद्ध कहते हैं कि आँख का संयम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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