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________________ 392 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन उत्तम है, कान का संयम उत्तम है, घ्राण और रसना का संयम भी उत्तम है। शरीर और वचन तथा मन का संयम भी उत्तम है। जो भिक्षु सर्वत्र सभी इन्द्रियों कासंयम रखता है, वह दुःखों से मुक्त हो जाता है। 149 संयुत्तनिकाय में कछुए की उपमा देते हुए बुद्ध कहते हैं कि कछुआ जैसे अपने अंगों को अपनी खोपड़ी में समेट लेता है, वैसे ही भिक्षु भी अपने को मन के वितों से समेट ले।150 वैदिक-परम्परा में भी संन्यासी के लिए इन्द्रियसंयम आवश्यक है। गीता में स्थितप्रज्ञ मुनि के लक्षण में कहा गया है कि जिसकी इन्द्रियाँ वशीभूत हैं, वही स्थितप्रज्ञ है।151 गीता भी जैन और बौद्ध-परम्पराओं के समान कछुएका उदाहरण देते हुए कहती है कि ज्ञाननिष्ठा में स्थित संन्यासी कछुए के समान, अर्थात् जैसे कछुआ भय के कारण सब ओर से अपने अंगों को संकुचित कर लेता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण विषयों से अपनी इन्द्रियों को समेट लेता है और तब ही उसकी बुद्धि स्थिर कही जाती है।152 गीता भी इन्द्रियसंयम का अर्थ इन्द्रियों के विषयों के प्रति होने वाले राग-द्वेष के भावों का निग्रह ही मानती है। इस प्रकार, जैन, बौद्ध और वैदिक-तीनों ही परम्पराएँ मुनि के लिए इन्द्रियसंयम को आवश्यक मानती हैं। परीषह ___ परीषह शब्द का अर्थ है-कष्टों को समभावपूर्वक सहन करना। यद्यपि तपश्चर्या में भी कष्टों को सहन किया जाता है, लेकिन तपश्चर्या और परीषहमें अन्तर है। तपश्चर्या में स्वेच्छा से कष्ट सहन किया जाता है, जबकि परीषह में स्वेच्छा से कष्ट सहन नहीं किया जाता, वरन् मुनि-जीवन के नियमों का परिपालन करते हुए आकस्मिक रूप से यदि कोई संकट उपस्थित हो जाता है, तो उसे सहन किया जाता है। कष्ट-सहिष्णुता मुनि-जीवन के लिए आवश्यक है, क्योंकि यदि वह कष्ट-सहिष्णु नहीं रहता है, तो वह अपने नैतिक-पथ से कभी भी विचलित हो जाएगा। जैन-मुनि के जीवन में आने वाले कष्टों का विवेचन उत्तराध्ययन और समवायांग में है। जैन-परम्परा में 22 परीषह माने गए हैं -154 1. क्षुधा-परीषह- भूख से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी भिक्षु नियम-विरुद्ध आहार ग्रहण न करे, वरन् समभावपूर्वक भूख की वेदना सहन करे। 2. तृषा-परीषह - प्यास से व्याकुल होने पर भी मुनि नियम के प्रतिकूल सचित्त जल न पीए, वरन् प्यास की वेदना सहन करे। 3. शीत-परीषह- वस्त्राभाव या वस्त्रों की न्यूनता के कारण शीत-निवारण न हो, तो भी आग से तापकर, अथवा मुनि-मर्यादा के विरुद्ध शय्या को ग्रहण कर उस शीत की वेदना का निवारण नहीं करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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