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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
समितियों का विवेचन कर देते हैं। विनयपिटक में एवं सुत्तनिपात में भी अनेक आदेश इस सम्बन्ध में उपलब्ध हैं। मुनि की आवागमन की क्रिया विषय में विनयपिटक में उल्लेख है कि मुनि सावधानीपूर्वक मन्थर गति से गमन करे । गमन करते समय वरिष्ठ भिक्षुओं से आगे न चले, चलते समय दृष्टि नीचे रखे तथा जोर-जोर से हँसता हुआ और बातचीत करता हुआ नचले। 137 सुत्तनिपात में मुनि की भिक्षावृत्ति के सम्बन्ध में बुद्ध के निर्देश उपलब्ध हैं। वे कहते हैं कि रात्रि के बीतने पर मुनि गाँव में पैठे, वहाँ न तो किसी का निमंत्रण स्वीकार करे, न किसी के द्वारा गाँव से लाए गए भोजन को स्वीकार करे, न मुनि गांव में आकर सहसा विचरण करे ; चुपचाप भिक्षा करे और (भिक्षा के लिए) किसी भी प्रकार का संकेत करते हुए कोई बात न बोले। यदि कुछ मिले तो अच्छा है और न मिले तो भी ठीक-इस प्रकार, दोनों अवस्थाओं में अविचलित रहकर वापस वन की ओर लौटे। गूंगे की तरह मौन हो, हाथ में पात्र लेकर वह मुनि थोड़ा दान मिलने पर उसकी अवहेलना न करे और न दाता का तिरस्कार करे। 138 भिक्षु असमय में विचरण न करे, समय पर ही भिक्षा के लिए गाँव में पैठे।
असमय में विचरण करने वाले को आसक्तियाँ लग जाती हैं, इसलिए ज्ञानी पुरुष असमय में विचरण नहीं करते हैं 139 1 धम्मपद एवं सुत्तनिपात में मुनि की भाषा समिति के सम्बन्ध में भी उल्लेख है। धम्मपद में कहा है कि जो भिक्षु वाणी में संयत है, मितभाषी है तथा विनीत है, वही धर्म और अर्थ को प्रकाशित करता है, उसका भाषण मधुर होता है। 140 सुत्तनिपात में भी इसी प्रकार, अविवेकपूर्ण वचन नहीं बोलना चाहिए और विवेकपूर्ण वचन बोलना चाहिए, इसका निर्देश है।
___ इस प्रकार, बुद्ध ने चाहे समिति शब्द का प्रयोग न किया हो, फिर भी उन्होंने जैनपरम्परा के समान ही आवागमन, भाषा, भिक्षा एवं वस्तुओं का आदान-प्रदान व मलमूत्र-विसर्जन आदि का विचार किया है। बुद्ध के उपर्युक्त वचन यह स्पष्ट कर देते हैं कि इस सम्बन्ध में उनका दृष्टिकोण जैन-परम्परा के निकट है।
वैदिक-परम्परा और पाँच समितियां- वैदिक-परम्परा में भी संन्यासी को गमनागमन की क्रिया काफी सावधानीपूर्वक करने का विधान है। मनु का कथन है कि संन्यासी को बिना जीवों को कष्ट पहुँचाए चलना चाहिए। 141 महाभारत के शान्तिपर्व में भी मुनि को त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा को बचाकर ही गमनागमन की क्रिया करने का उल्लेख है। भाषासमिति के सन्दर्भ में भी दोनों परम्पराओं में विचारसाम्य है। मनु का कथन है कि मुनि को सदैव सत्यही बोलना चाहिए।14 महाभारत के शांतिपर्व में भी वचन-विवेक का सुविस्तृत विवेचन है। 143 मुनि की भिक्षावृत्ति के सम्बन्ध में भी वैदिक-परम्परा के कुछ नियम जैन-परम्परा के समान ही हैं। वैदिक-परम्परा में भिक्षा से प्राप्त भोजन पांच प्रकार
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