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________________ 378 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन भी अनेक जन्तु आकर जल जाते हैं तथा भोजन में भी गिर जाते हैं, अतः रात्रि-भोजन हिंसा से मुक्त नहीं है। बौद्ध-परम्परा और पंच महाव्रत बौद्ध-परम्परा में निम्न दस भिक्षु-शील माने गए हैं, जो कि जैन-परम्परा के पंच महाव्रतों के अत्यधिक निकट हैं - 1. प्राणातिपात-विरमण, 2. अदत्तादान-विरमण, 3. अब्रह्मचर्य या कामेसु-मिच्छाचार-विरमण, 4. मूसावाद (मृषावाद)-विरमण, 5. सुरामेरयमद्य (मादक द्रव्य)-विरमण, 6. विकालभोजन-विरमण, 7. नृत्यगीतवादित्र-विरमण, 8. माल्य-धारण, गन्ध-विलेपन विरमण, 9. उच्च- शय्या, महाशय्या-विरमण, 10. जातरूप रजतग्रहण (स्वर्ण-रजतग्रहण)-विरमण । तुलनात्मक-दृष्टि से देखा जाए, तो इनमें से छ: शील पंच महाव्रत और रात्रि-भोजन परित्याग के रूप में जैन- परम्परा में भी स्वीकृत हैं। शेष चार भिक्षु-शील भी जैन-परम्परा में स्वीकृत हैं, यद्यपि महाव्रत के रूप में इनका उल्लेख नहीं है। जैन-परम्परा भी भिक्षु के लिए मद्यपान, माल्य-धारण, गंधविलेपन, नृत्यगीतवादित्र एवं उच्चशय्या का वर्जन करती है। जैन-परम्परा के महाव्रतों और बौद्ध-परम्परा के भिक्षु-शीलों में न केवल बाह्यशाब्दिक-समानता है, वरन् दोनों की मूलभूत भावना भी समान है। बौद्ध-विचारकों ने भी जैन-परम्परा के समान इनके सम्बन्ध में गहराई से विवेचन किया है। तुलनात्मक-अध्ययन की दृष्टि से यह उचित होगा कि हमथोड़ी गहराई से दोनों परम्पराओं की समरूपता को देखने का प्रयास करें। 1. प्राणातिपात-विरमण-बौद्ध-परम्परा में भी भिक्षु के लिए हिंसा वर्जित है। इतना ही नहीं, वरन् बौद्ध-परम्परा में भिक्षु के लिए मन, वचन, काय और कृत, कारित तथा अनुमोदित हिंसा का निषेध है। बौद्ध-परम्परा भी जैन-परम्परा के समान भिक्षु के लिए वनस्पति तक की हिंसा का निषेध करती है। विनयपिटक में वनस्पति को तोड़ना और भूमि का खोदना भी भिक्षु के लिए वर्जित है, क्योंकि इसमें पाणियों की हिंसा की संभावना है। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि बौद्ध-परम्परा में भी वनस्पति, पृथ्वी आदि को सूक्ष्म प्राणियों से युक्त माना गया है। यद्यपि वह जैन-परम्परा के समान पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु में जीवन को स्वीकार नहीं करती है, तथापि पृथ्वी और पानी में जीव रहते हैं, यह उसे स्वीकार है, अतः बौद्ध-भिक्षु के लिए सचित्त जल का पीना आदि वर्जित नहीं हैं। मात्र नियम यह है कि उसे जल छानकर पीना चाहिए। 2. अदत्तादान-विरमण-जैन और बौद्ध-दोनों परम्पराएं यह स्वीकार करती हैं कि भिक्षु को कोई भी वस्तु उसके स्वामी से दिए बिना ग्रहण नहीं करना चाहिए। बौद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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