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श्रमण-धर्म
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भिक्षु भी अपनी जैविक-आवश्यकताओं की पूर्ति भिक्षावृत्ति के द्वारा ही करता है। बौद्ध - परम्परा ने न केवल उन बाह्य-वस्तुओं के संदर्भ में ही अस्तेय-व्रत को स्वीकार किया है जिनका कि कोई स्वामी हो, वरन् यह भी स्वीकार करती है कि न केवल नगर में, वरन् जंगल में भी बिना दी हुई वस्तु नहीं लेनी चाहिए। विनयपिटक के अनुसार, जो भिक्षु बिना दी हुई वस्तु ग्रहण करता है, वह अपने श्रमण-जीवन से च्युत हो जाता है। संयुत्तनिकाय में कहा गया है कि यदि भिक्षु फूल को सूंघता है, तो भी वह चोरी करता है।
___3. अब्रह्मचर्य-विरमण- दोनों परम्पराओं में श्रमण के लिए कामसेवन वर्जित है। बौद्ध-परम्परा भी जैन-परम्परा के समान इस नियम के संदर्भ में काफी सजग प्रतीत होती है। विनयपिटक के अनुसार, भिक्षु के लिए स्त्री का स्पर्श भी वर्जित माना गया है। 7 बुद्ध ने भी इस संदर्भ में काफी सतर्कता बरतने का प्रयास किया है, यही कारण है कि बुद्ध ने स्त्रियों को संघ में प्रवेश देने में अनुत्सुकता प्रकट की। अपने अंतिम उपदेश में भी बुद्ध ने भिक्षुओं को स्त्री-संपर्क से बचने के लिए सावधान किया है। बुद्ध के परिनिर्वाण के पूर्व
आनन्द ने प्रश्न किया था कि भगवन्! हम किस प्रकार स्त्रियों के साथ बर्ताव करें? भगवान् ने कहा कि उन्हें मत देखो। आनन्द ने फिर प्रश्न किया कि यदि वे दिखाई दें, तो हम उनके साथ कैसे व्यवहार करें ? बुद्ध ने पुनः कहा कि हे आनन्द! आलाप (बातचीत) न करना चाहिए। आनन्द ने पुनः पूछा कि उनके साथ यदि बातचीत का प्रसंग उपस्थित हो जाए, तो क्या करें ? बुद्ध ने अंत में यही कहा कि ऐसी स्थिति में भिक्षु को अपनी स्मृति को सम्हाले रखना चाहिए। बौद्ध-दर्शन में भिक्षु और भिक्षुणियों के पारस्परिक सम्बन्धों के संदर्भ में जो नियम बनाए गए हैं, उनमें भी इस बात की काफी सावधानी रखी गई है कि भिक्षु और भिक्षुणियों का ब्रह्मचर्य स्खलित न होने पाए। विनयपिटक के अनुसार, भिक्षु का एकान्त में भिक्षुणी के साथ बैठना अपराध माना गया है। 79
4. मृषावादविरमण-जैन-परम्परा की भांति बौद्ध-परम्परा में भी भिक्षु के लिए असत्य-भाषण वर्जित है। भिक्षु न स्वयं असत्य बोले, न अन्य से असत्य बुलवाए, न किसी को असत्य बोलने की अनुमति दे। 8 बौद्ध - परम्परा के अनुसार, भिक्षु को सत्यवादी होना चाहिए। वह मिथ्याभाषण में न पड़े, न किसी की चुगली ही करे, न कपटपूर्ण वचन ही बोले।" बुद्ध का कथन है कि वचन सत्य हों, पर अहितकर हों, उसे वे नहीं बोलते हैं, परन्तु जो वचन सत्य हो, वह प्रिय या अप्रिय होते हुए भी हित-दृष्टि से बोलना हो, तो उसे बुद्ध बोलते हैं। 2 दीघनिकाय के अनुसार, भिक्षु को असत्य वचन नहीं बोलना चाहिए तथा हमेशाशुद्ध, उचित, अर्थपूर्ण, तर्कपूर्ण और मूल्यवान् वचन ही बोलना चाहिए। जानबूझकर असत्य बोलना, अथवा अपमानजनक शब्दों का उपयोग करना भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त
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