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________________ श्रमण-धर्म 377 वे ही वस्तुएँ अपने पास रखनी चाहिए, जिनके द्वारा वह संयम-यात्रा का निर्वाह कर सके। इतना ही नहीं, उसे उन उपकरणों पर तो क्या, अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखना चाहिए। अपरिग्रह-महाव्रत के लिए जिन पाँच भावनाओं का विधान किया गया है. वे पाँचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति का निषेध करती है। मुनि को इन्द्रियों के विषयों में आसक्त और कषायों के वशीभूत नहीं होना चाहिए, यही उसकी सच्ची अपरिग्रह-वृत्ति है। अपरिग्रह-महाव्रत के अपवाद-सामान्यतया, दिगम्बर-मुनि के पूर्वोक्त तीन तथाश्वेताम्बर-मुनि के लिए पूर्व निर्दिष्ट चौदह उपकरणों के रखने का ही विधान है। विशेष परिस्थितियों में वह उनसे अधिक उपकरणभी रख सकता है। उदाहरणार्थ, भिक्षु सेवाभाव की दृष्टि से अतिरिक्त पात्र रख सकता है, अथवा विष-निवारण के लिए स्वर्ण घिसकर उसका पानी रोगी को देने के लिए वह स्वर्ण को ग्रहण भी कर सकता है। इसी प्रकार, अपवादीय-स्थिति में वह छत्र, चर्म-छेदन आदि अतिरिक्त वस्तुएं रख सकता है 68 तथा वृद्धावस्था एवं बीमारी के कारण एक स्थान पर अधिक समय तक ठहर भी सकता है। वर्तमानकाल में जैन-श्रमणों द्वारा रखे जाने वाली पुस्तक, लेखनी, कागज, मसि आदि वस्तुएंभी अपरिग्रह-व्रतकाअपवाद ही हैं। प्राचीन ग्रन्थों में पुस्तक रखना प्रायश्चित्त योग्य अपराध था। रात्रिभोजन-परित्याग - रात्रि-भोजन-परित्याग दिगम्बर-परम्परा के अनुसार श्रमण का मूलगुण है। श्वेताम्बर-परम्परा में रात्रि - भोजन-परित्याग का उल्लेख छठवें महाव्रत के रूप में भी हुआ है। दशवैकालिकसूत्र में इसे छठवाँ महाव्रत कहा गया है। मुनि सम्पूर्ण रूप से रात्रि - भोजन का परित्याग करता है। रात्रि- भोजन का निषेध अहिंसा के महाव्रत की रक्षा एवंसंयम की रक्षा-दोनों ही दृष्टि से आवश्यकमाना गया है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि मुनि सूर्य के अस्त हो जाने पर सभी प्रकार के आहारादिके भोग की इच्छा मन से भी न करे। सभी महापुरुषों ने इसे नित्य-तप का साधन कहा है। यह एक समय भोजन की वृत्ति संयम के अनुकूल है, क्योंकि रात्रि में आहार करने से अनेक सूक्ष्म जीवों की हिंसा की सम्भावना रहती है। रात्रि में पृथ्वी पर ऐसे सूक्ष्म, त्रस एवं स्थावर जीव व्याप्त रहते हैं कि रात्रि - भोजन में उनकी हिंसा से बचा नहीं जा सकता है। यही कारण है कि निर्ग्रन्थ मुनियों के लिए रात्रि-भोजन का निषेध है। आचार्य अमृतचन्द्र ने रात्रि-भोजन के विषय में दो आपत्तियाँ प्रस्तुत की हैं। प्रथम तो यह कि दिन की अपेक्षारात्रि में भोजन के प्रति तीव्र आसक्ति रहती है और रात्रि भोजन करने से ब्रह्मचर्य-महाव्रत का निर्विघ्न पालन संभव नहीं होता। दूसरे, रात्रि-भोजन में भोजन के पकाने अथवा प्रकाश के लिए जो अग्नि या दीपक प्रज्वलित किया जाता है, उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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