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श्रमण-धर्म
करना। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जहाँ दिगम्बर- परम्परा में 28 मूल गुणों में आचरण के बाह्य-तथ्यों पर अधिक बल दिया गया है, वहाँ श्वेताम्बर में आन्तरिक - विशुद्धि को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है । मनोशुद्धि मूलतः दोनों परम्पराओं में स्वीकृत है। पंच महाव्रत
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पंच महाव्रत श्रमण-जीवन के मूलभूत गुणों में माने गए हैं। जैन - परम्परा में पंच महाव्रत ये हैं- 1. अहिंसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय, 4. ब्रह्मचर्य और 5. अपरिग्रह। ये पांचों
गृहस्थ और श्रमण- दोनों के लिए विहित हैं, अन्तर यह है कि श्रमण- जीवन में उनका पालन पूर्ण रूप से करना होता है, इसलिए महाव्रत कहे जाते हैं। गृहस्थ-जीवन में उनका पालन आंशिक रूप से होता है, इसलिए गृहस्थ - जीवन के संदर्भ में अणुव्रत कहे जाते हैं। श्रमण इन पांचों महाव्रतों का पालन पूर्ण रूप से करता है। सामान्य स्थिति में इनके परिपालन के लिए अपवाद नहीं माने गए हैं। श्रमण केवल विशेष परिस्थितियों में ही इन नियमों के परिपालन में अपवादमार्ग का आश्रय ले सकते हैं। सामान्यतया, इन पंच महाव्रतों का पालन मन, वचन और काय तथा कृत, कारित और अनुमोदन इन 3x3 नव कोटियों सहित करना होता है ।
अहिंसा - महाव्रत - श्रमण को सर्वप्रथम स्व और पर की हिंसा से विरत होना होता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दूषित मनोवृत्तियों के द्वारा आत्मा के स्वगुणों का विनाश करना स्व-हिंसा है । दूसरे प्राणियों को पीड़ा एवं हानि पहुँचाना पर हिंसा है। श्रमण का पहला कर्त्तव्य स्व-हिंसा से विरत होना है, क्योंकि स्व-हिंसा से विरत हुए बिना पर की हिंसा से बचा नहीं जा सकता । श्रमण-साधक को जगत् के सभी त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा से भी विरत होना होता है । दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि भिक्षुजगत् में जितने भी प्राणी हैं, उनकी हिंसा जानकर अथवा अनजाने में न करे, न कराए और न हिंसा करनेवाले का अनुमोदन ही करे। 24 भिक्षु प्राणवध क्यों न करे, इसके प्रतिउत्तर में कहा गया है कि हिंसा से दूसरे के घात करने के विचार से, न केवल दूसरे को पीड़ा पहुँचती है, वरन् उससे आत्म - गुणों का भी घात होता है और आत्मा कर्म-मल से मलिन होती है । प्रश्नव्याकरणसूत्र में हिंसा का एक नाम गुणविराधिका भी वर्णित है। अहिंसा - महाव्रत के परिपालन में श्रमण-जीवन और गृहस्थ जीवन में प्रमुख रूप से अंतर यह है कि जहाँ गृहस्थ-साधक केवल त्रस - प्राणियों की संकल्पी - हिंसा का त्याग करता है, वहाँ श्रमणसाधक त्रस और स्थावर, सभी प्राणियों की सभी प्रकार की हिंसा का त्यागी होता है। हिंसा के चार प्रकार 1. आरम्भी, 2. उद्योगी, 3. विरोधी और 4. संकल्पी, में से गृहस्थ केवल संकल्पी - हिंसा का त्यागी होता है और श्रमण चारों ही प्रकार की हिंसा का त्यागी
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