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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
वैदिक-परम्परा में संन्यासियों के प्रकार ___महाभारत में संन्यासियों के चार प्रकार वर्णित हैं - 1. कुटीचक, 2. बहूदक, 3. हंस और 4. परमहंस। 19 (1) कुटीचक-संन्यासी अपने गृह में ही संन्यासधारण करता है तथा अपने पुत्रों द्वारा निर्मित कुटिया में रहते हुए, उन्हीं की भिक्षा को ग्रहण कर साधना करता है।20 (2) बहूदक-संन्यासी त्रिदण्ड, कमण्डलु एवं कषायवस्त्रों से युक्त होते हैं तथा सात ब्राह्मण-घरों से भिक्षा मांगकर जीवन-यापन करते हैं। (3) हंस-संन्यासी ग्राम में एक रात्रि तथा नगर में पाँच रात्रियों से अधिक नहीं बिताते हुए उपवास एवं चान्द्रायण-व्रत करते रहते हैं। (4) परमहंस-संन्यासी सदैव ही पेड़ के नीचे शून्यगृह या श्मशान में निवास करते हैं। सामान्यतया वे नग्न रहते हैं तथा सदैव ही आत्मभाव में रत रहते हैं।
तुलनात्मक-दृष्टि से विचार करते हुए जैन-परम्परा के जिनकल्पी-मुनिको परमहंस या अवधूत-श्रेणी का माना जा सकता है तथा संन्यासियों के अन्य प्रकार की तुलना स्थविरकल्पी-मुनियों से की जा सकती है। जैन-श्रमण के मूलगुण
जैन-परम्परा में श्रमण-जीवन की कुछ आवश्यक योग्यताएँ मानी हैं, जिन्हें मूलगुणों के नाम से जाना जाता है। दिगम्बर-परम्परा के मूलाचार-सूत्र में श्रमण के 28 मूलगुण माने गए हैं - 1-5, पांच महाव्रत, 6-10, पाँच इन्द्रियों का संयम, 11-15. पांच समितियों का परिपालन, 16-21. छह आवश्यक कृत्य, 22. केशलोच, 23. नग्नता, 24. अस्नान, 25. भूशयन, 26. अदन्तधावन, 27. खड़े रहकर भोजन ग्रहण करना और 28. एकभुक्ति--एक समय भोजन करना।
श्वेताम्बर-परम्परा में श्रमण के 28 मूलगुण माने गए हैं ।22 श्वेताम्बर-परम्परा का वर्गीकरण दिगम्बर-परम्परा के वर्गीकरण से थोड़ा भिन्न है। श्वेताम्बर-ग्रन्थों के आधार पर श्रमण के 27 मूलगुण इस प्रकार हैं - 1-5.पंचमहाव्रत, 6. अरात्रिभोजन, 7-11. पांचों इन्द्रियों का संयम, 12. आन्तरिक-पवित्रता, 13. भिक्षु-उपाधि की पवित्रता, 14. क्षमा, 15. अनासक्ति, 16. मन की सत्यता, 17. वचन की सत्यता, 18. काया की सत्यता, 19-24. छह प्रकार के प्राणियों का संयम, अर्थात् उनकी हिंसा न करना, 25. तीन गुप्ति, 26. सहनशीलता, 27. संलेखना। समवायांग की सूची इससे किंचित् भिन्न है। समवायांग के अनुसार 27 गुण इस प्रकार हैं-3 - 1-5. पंच महाव्रत, 6-10. पंच इन्द्रियों का संयम, 11-15. चार कषायों की परित्याग, 16. भावसत्य, 17. करणसत्य, 18. योगसत्य, 19. क्षमा, 20. विरागता, 21-24. मन, वचन और काया का निरोध 25. ज्ञान, दर्शन और चारित्र से संपन्नता, 26. कष्ट-सहिष्णुता और 27. मरणान्त कष्ट का सहन
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