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________________ गृहस्थ-धर्म 353 उत्तराधिकारी को संभला देता है और स्वयं निवृत्त होकर अपना सारा समय धर्माराधना में लगाता है। इस भूमिका में रहकर गृहस्थ-उपासक यद्यपि स्वयं व्यवसाय आदि कार्यों में भाग नहीं लेता है और न स्वयं कोई आरम्भ ही करता है, फिर भी वह अपने पुत्रादिको यथावसर व्यावसायिक एवं पारिवारिक-कार्यों में मार्गदर्शन देता रहता है। दूसरे, वह व्यवसाय आदि कार्यों का संचालन तो पुत्रों को सौंप देता है, लेकिन सम्पत्ति पर से स्वामित्व के अधिकार का त्याग नहीं करता है। सम्पत्ति के स्वामित्व का त्याग वह इसलिए नहीं करता है कि यदि पुत्रादि अयोग्य सिद्ध हुए, तो वह किसी योग्य उत्तराधिकारी को दी जा सके। 9. परिग्रह-विरत प्रतिमा- गृहस्थ-उपासक को जब संतोष हो जाता है कि उसकी सम्पत्ति का उसके उत्तराधिकारियों द्वारा उचित रूप से उपयोग हो रहा है, अथवा वह योग्य हाथों में है, तो वह उस सम्पत्ति पर से अपने स्वामित्वके अधिकार का भी परित्याग कर देता है और इस प्रकार निवृत्ति की दिशा में एक कदम आगे बढ़कर परिग्रह-विरत होता जाता है। फिर भी, इस अवस्था में वह पुत्रादि को व्यावसायिक एवं पारिवारिक-कार्यों में उचित मार्गदर्शन देता रहता है। इस प्रकार, परिग्रह से विरत हो जाने पर भी वह अनुमतिविरत नहीं होता । श्वेताम्बर-परम्परा में परिग्रहविरत-प्रतिमा के स्थान पर भृतक प्रेष्यारम्भवर्जन-प्रतिमा है, जिसमें गृहस्थ-उपासक स्वयं आरम्भ करने एवं दूसरे से करवाने का परित्याग कर देता है, लेकिन अनुमति-विरत नहीं होता है। 10. अनुमतिविरत-प्रतिमा-गृहस्थ-उपासक विकास की इस कक्षा में अनुमति देना भी बन्द कर देता है। वह समस्त ऐसे आदेशों और उपदेशों से दूर रहता है, जिनके कारण किसी भी प्रकार की स्थावर यात्रसहिंसा की सम्भावना हो। श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार, यह नौ प्रतिमा काही अंगहै। इस अवस्था तक गृहस्थ-उपासक अपने लिए बने भोजन को अपने परिवार से ही ग्रहण करता है, स्वयं के लिए बने भोजन को ग्रहण करने का वह त्यागी नहीं होता है। 11. (अ) उद्दिष्टभक्तवर्जन-प्रतिमा-निवृत्ति के इस चरण में गृहस्थ-उपासक मुण्डन करा लेता है। स्वयं के लिए बने आहार का भी परित्याग कर देता है। वह किसी भी गृहस्थ या कुटुम्बीजन के यहाँ जाकर आहार ग्रहण करता है। श्वेताम्बर – परम्परा में परिग्रह-विरत-प्रतिमा नहीं होने से इसे दसवीं प्रतिमा माना गया है। उनके अनुसार, इस अवस्था में गृहस्थ-उपासक से किसी पारिवारिक-बात के पूछे जाने पर उसे केवल इन दो विकल्पों से उत्तर देना चाहिए। मैं इसे जानता हूँ या मैं इसे नहीं जानता हूँ। 11. (ब) श्रमणभूत प्रतिमा - इस अवस्था में गृहस्थ-उपासक की अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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