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________________ 352 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन श्रमणत्वही है। यह गृहस्थ के विकास की चौथीभूमिका है, जिसमें प्रवृत्तिमय जीवन में रहते हुए भी अवकाश के दिनों में निवृत्ति का आनन्द लिया जाता है। 5. नियम-प्रतिमा- इसे कायोत्सर्ग-प्रतिमा एवं दिवामैथुनविरत-प्रतिमा भी कहा जाता है। इसमें पूर्वोक्त प्रतिमाओं का निर्दोष पालन करते हुए पाँच विशेष नियम लिए जाते हैं- 1. स्नान नहीं करना, 2. रात्रि-भोजन नहीं करना, 3. धोती की एक लांग नहीं लगाना, 4. दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करना तथा रात्रि में मैथुन की मर्यादा निश्चित करना, 5. अष्टमी, चतुर्दशी आदि किसी पर्व-दिन में रात्रि-पर्यन्त देहासक्ति त्यागकर कायोत्सर्ग करना। वस्तुतः, इस प्रतिमा में कामासक्ति, भोगासक्ति अथवा देहासक्ति कम करने का प्रयास किया जाता है। 6. ब्रह्मचर्य-प्रतिमा-जब गृहस्थ-साधक नियम-प्रतिमा की साधना के द्वारा कामासक्ति पर विजय पाने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, तो वह विकास की इस कक्षा में मैथुन से सर्वथा विरत होकर ब्रह्मचर्य ग्रहण कर लेता है और इस प्रकार निवृत्ति की दिशा में एक और चरण बढ़ाता है। इस प्रतिमा में वह ब्रह्मचर्य की रक्षा के निमित्त- 1. स्त्री के साथ एकान्त का सेवन नहीं करना, 2. स्त्री-वर्ग से अति परिचय या सम्पर्क नहीं रखना, 3. श्रृंगार नहीं करना, 4.स्त्री-जाति के रूप-सौन्दर्य सम्बन्धी तथा कामवर्द्धक वार्तालाप नहीं करना, 5.स्त्रियों के साथ एक आसन पर नहीं बैठना आदि नियमों का भी पालन करता है। 7. सचित्त आहारवर्जन-प्रतिमा- पूर्वोक्त प्रतिमाओं के नियमों का यथावत् पालन करते हुए इस भूमिका में आकर गृहस्थ-साधक अपनी भोगासक्ति पर विजय की एक और मोहर लगा देता है और सभी प्रकार की सचित्त वस्तुओं के आहार का त्याग कर देता है एवं उष्ण जल तथा अचित्त-आहार का ही सेवन करता है। साधना की इस कक्षा तक आकर गृहस्थ-उपासक अपने वैयक्तिक-जीवन की दृष्टि से अपनी वासनाओं एवं आवश्यकताओं का पर्याप्त रूप से परिसीमन कर लेता है, फिर भी पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करने की दृष्टि से गार्हस्थिक-कार्य एवं व्यवसाय आदि करता रहता है, जिनके कारण उद्योगी एवं आरम्भी-हिंसा से पूर्णतया बच नहीं पाता है। ___8. आरम्भत्याग-प्रतिमा - साधना की इस भूमिका में आने के पूर्व गृहस्थउपासक का महत्वपूर्ण कार्य यह है कि वह अपने समग्र पारिवारिक एवं सामाजिकउत्तरदायित्वों को अपने उत्तराधिकारी पर डाल दे। जैन-परम्परा में गृहस्थ-उपासक इस प्रसंग पर अपने कुटुंबीजनों तथा सम्भ्रान्त नागरिकों को बुलाकर एक विशेष समारोह के साथ अपने पारिवारिक, सामाजिक और व्यवसायिक-उत्तरदायित्व को ज्येष्ठ पुत्र या अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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