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________________ गृहस्थ-धर्म 351 अपरिग्रह का अपनी गृहस्थ-मर्यादाओं के अनुरूप आंशिक रूप में पालन करना प्रारम्भ करता है। गृहस्थ-जीवन के पाँच अणुव्रतों और तीन गुणवतों का निर्दोष रूप से पालन करना व्रत-प्रतिमा है। इसमें पाँच अणुव्रतों और तीन गुणव्रतों का तो सम्यक् पालन किया जाता है, लेकिन सामायिक आदि शिक्षाव्रतों का यथासमय सम्यक्तया अभ्यास नहीं किया जाता है । वस्तुतः, पाँच अणुव्रतों और तीन व्रतों की साधना आध्यात्मिक-दृष्टि से निषेधात्मक-प्रयास है, जबकि सामाजिक और प्रोषध आदि की साधना आध्यात्मिक-दृष्टि से विधायक-प्रयास है। आध्यात्मिक-क्षेत्र में निषेधात्मक नैतिक-नियमों के पालन और विधानात्मक-अभ्यास में जो अन्तर है, वही अन्तर व्रत-प्रतिमा और आगे आने वाली सामायिक और प्रोषधोपवास-प्रतिमाओं में है। व्रत-प्रतिमा गृहस्थ-जीवन की दूसरी भूमिका है, जिसमें नैतिक-आचरण की दिशा में साधक आंशिक प्रयास प्रारम्भ करता है। 3. सामायिक-प्रतिमा-साधना का अर्थमात्र त्याग ही नहीं, वरन् कुछ प्राप्ति भी है। सामायिक प्रतिमा में साधक समत्व' प्राप्त करता है। समत्व' के लिए किया जानेवाला प्रयास सामायिक कहलाता है। यद्यपि समत्व एक दृष्टि है, एक विचार है, लेकिन वह ऐसा विचार नहीं, जो आचरण में प्रकट न होता हो। उसे जीवन के आचरणात्मक-पक्ष में उतारने के लिए सतत प्रयास अनिवार्य हैं। वैचारिक-समत्व जब तक आचरण में प्रकट नहीं होता, वह नैतिक-जीवन के लिए अधिक मूल्यवान् नहीं बनता। गृहस्थ-उपासक को सामायिकप्रतिमा में नियमित रूप से तीनों संध्याओं, अर्थात् प्रातः, मध्याह और सायंकाल में मन, वचन और कर्म से निर्दोषरूप में समत्व' की आराधना करनी होती है। यह गृहस्थ-जीवन के विकास की तीसरी भूमिका है। यहाँ अपनी पूर्व प्रतिज्ञाओं (प्रतिमाओं) का पालन करते हुए साधक गृहस्थ-जीवन के क्रियाकलापों में से प्रतिदिन नियमित रूप से कुछ समय आध्यात्मिक-चिन्तन एवं समत्व-भावना के अभ्यास में लगाता है। ___ 4. प्रोषधोपवास-प्रतिमा- साधना की इस कक्षा में गृहस्थ-उपासक गृहस्थी के झंझटों में से कुछ ऐसे अवकाश के दिन निकालता है, जब वह गृहस्थी के उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर मात्र आध्यात्मिक-चिन्तन-मनन कर सके। वह गुरु के समीप या धर्म-स्थान (उपासना-गृह) में रहकर आध्यात्मिक-साधना में ही उस दिवस को व्यतीत करता है। प्रत्येक मास की दो अष्टमी, दो चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा-इन दिनों में गृहस्थी के समस्त क्रियाकलापों से अवकाश पाकर उपवाससहित धर्म-स्थान या उपासना-गृह में निवास करते हुए आत्मसाधना में रत रहना गृहस्थ की प्रोषधोपवास-प्रतिमा है। प्रोषधोपवास-प्रतिमा निवृत्ति की दिशा में बढ़ा हुआ एक ओर चरण है, यह एक दिवस का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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