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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
समस्त चर्या साधु के समान होती है। उसकी वेशभूषा भी लगभग वैसी ही होती है, भिक्षाचर्या द्वारा ही जीवन-निर्वाह करता है। यदि उसे कोई मुनि समझकर वंदन करता है, तो वह यह कह देता है कि मैं तो प्रतिमाधारी-श्रमणोपासक हूँ और आपसे क्षमा चाहता हूँ । र-परम्परा की दृष्टि से साधु से वह इस अर्थ में भिन्न होता है कि ( 1 ) पूर्वराग कारण कुटुम्ब के लोगों या परिचितजनों के यहाँ ही भिक्षार्थ जाता है। (2) केशलुञ्चन के स्थान पर मुण्डन करवा सकता है। (3) साधु के समान विभिन्न ग्राम एवं नगरों में कल्पानुसार विहार नहीं करता है। अपने निवास नगर में ही रह सकता है।
श्वेताम्बर - प
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दिगम्बर- परम्परा में इसके दो विभाग हैं - 1. क्षुल्लक और 2. ऐलक । क्षुल्लक - यह दिगम्बर मुनि के आचार-व्यवहार से निम्न बातों में भिन्न होता है- (1) वस्त्र (अधोवस्त्र और उत्तरीय) रखता है, (2) या तो केशलोच करता है या मुण्डन करवाता है, (3) भिक्षा विभिन्न घरों से माँगकर करता है या फिर किसी मुनि के पीछे जाकर एक ही घर से ग्रहण करता है।
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ऐलक - आचार और चर्या में यह मुनि का निकटवर्ती होने के कारण इसे ऐलक कहा जाता है । यह एक कमण्डलु और मोरपिच्छी रखता है, केशलुञ्चन करता है, वह दिगम्बर-मुनि से केवल एक बात में भिन्न होता है कि लोकलज्जा के नहीं छूट पाने के कारण गुह्यांग को ढँकने के लिए मात्र लंगोटी रखता है, जबकि दिगम्बर मुनि सर्वथा नग्न होता है। शेष सब बातों में इसकी चर्या दिगम्बर मुनि के समान ही होती है। इस प्रकार, यह अवस्था गृही- साधना की सर्वोत्कृष्ट भूमिका है। साधक अपने अगले विकास के चरण में श्रमण या मुनि - जीवन को स्वीकार कर लेता है, या संथारा ग्रहण कर देह त्याग देता है, इसे श्रमण जीवन की पूर्व भूमिका भी कहा जा सकता है।
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तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर यह अवस्था वैदिक परम्परा के वानप्रस्थाश्रम और बौद्ध परम्परा के श्रामणेरजीवन के समकक्ष मानी जा सकती है। वैदिक परम्परा में और बौद्ध परम्परा में जिस प्रकार वानप्रस्थ अथवा श्रामणेर का जीवन संन्यास या उपसंपदा पूर्व भूमिका होता है, उसी प्रकार जैन - परम्परा की श्रमण-भूत प्रतिमा भी श्रमण - जीवन पूर्व भूमिका है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि गृहस्थ-साधना की उपरोक्त भूमिकाओं और कक्षाओं की व्यवस्था इस प्रकार से की गई है कि जो साधक वासनात्मकक- जीवन से एकदम ऊपर उठने की सामर्थ्य नहीं रखता, वह निवृत्ति की दिशा में क्रमिक-प्रगति करते हुए अन्त में पूर्ण निवृत्ति के आदर्श को प्राप्त कर सके ।
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