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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
गृहस्थ (उपासक) जीवन में नैतिक-विकास की भूमिकाएँ
जैन - दर्शन निवृत्ति- परक है, लेकिन गृही-जीवन से समग्र रूप में तत्काल निवृत्त हो जाना जन-साधारण के लिए सुलभ नहीं होता, अतः निवृत्ति की दिशा में विभिन्न स्तरों का निर्माण आवश्यक है, जिससे व्यक्ति क्रमशः अपना नैतिक-विकास करता हुआ साधना के अन्तिम आदर्श को प्राप्त कर सके। जैन-विचारणा में गृही - जीवन में साधना का विकास किस क्रम से धीरे-धीरे आगे बढ़ता जाता है, इसका सुन्दर चित्रण हमें श्रावकप्रतिमा' की धारणा में मिलता है। प्रतिमा का अर्थ है-प्रतिज्ञा विशेष। नैतिक- विकास के हर चरण पर साधक द्वारा प्रकट किया हुआ दृढ़ निश्चय ही प्रतिमा कहा जाता है । श्रावक-प्रतिमाएँ गृही-जीवन में की जानेवाली साधना की विकासोन्मुख श्रेणियाँ (भूमिकाएँ) हैं , जिन पर क्रमशः चढ़ता हुआ साधक अपनी आध्यात्मिक-प्रगति कर जीवन के परमादर्श स्वस्वरूप' को प्राप्त कर लेता है। श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों विचारणाओं में श्रावक-प्रतिमाएँ (भूमिकाएँ) ग्यारह हैं।
श्वेताम्बरसम्मत उपासक-भूमिकाओं के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं - (1) दर्शन, (2) व्रत, (3) सामायिक, (4) प्रोषध, (5) नियम, (6) ब्रह्मचर्य, (7) सचित्त-त्याग, (8) आरम्भत्याग, (9) प्रेष्यपरित्याग, (10) उद्दिष्टभक्त-त्याग और (11) श्रमणभूत।।41 दिगम्बरसम्मत क्रम एवं नाम इस प्रकार हैं।42 -- (1) दर्शन, (2) व्रत, (3) सामायिक, (4) प्रोषध, (5) सचित्त-त्याग, (6) रात्रिभोजन एवं दिवामैथुन-विरति, (7) ब्रह्मचर्य, (8) आरम्भत्याग, (9) परिग्रहत्याग, (10) अनुमति-त्याग और (11) उद्दिष्ट-त्याग। श्वेताम्बर और दिगम्बर सूचियों में प्रथम चार नामों एवं उनके क्रम में साम्य है। श्वेताम्बरपरम्परा में सचित्त-त्याग का स्थान सातवाँ है, जबकि दिगम्बराम्नाय में उनका स्थान पाँचवाँ है । दिगम्बराम्नाय में ब्रह्मचर्य का स्थान सातवाँ है, जबकि श्वेताम्बराम्नाय में ब्रह्मचर्य का स्थान ठवाँ है। श्वेताम्बर-परम्परा में परिग्रह-त्याग स्वतन्त्र भूमिका में नहीं है, जबकि वह दिगम्बर-परम्परा में नौवें स्थान पर है। शेष दो, प्रेष्यत्याग और उद्दिष्टत्याग दिगम्बर-परम्परा में अनुमति-त्याग और उद्दिष्टत्याग के नाम से अभिहित हैं, लेकिन श्वेताम्बर-परम्परा में परिग्रह-त्याग को स्वतन्त्र भूमिका नहीं मानने के कारण ग्यारह की संख्या में जो एक कमी होती है, उसकी पूर्ति श्रमणभूत नामक प्रतिमा जोड़कर की गई है, जबकि दिगम्बर-परम्परा में वह उद्दिष्टत्याग के अन्तर्गत ही है, क्योंकि श्रमणभूतता और उद्दिष्टत्याग समानार्थक ही हैं। उपासक-प्रतिमाओं के क्रम एवं संख्या के सम्बन्ध में कुछ दिगम्बर-आचार्यों में भी मतभेद हैं। स्वामी कार्तिकेय ने इनकी संख्या बारह मानी है। इसी
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