________________
गृहस्थ-धर्म
347
श्रावक के दैनिक-षट्कर्म
श्रावक-जीवन के आवश्यक षट्कर्म इस प्रकार हैं
1. देवपूजा-तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का पूजन अथवा उनके आदर्श स्वरूप का चिन्तन एवं गुणगान।
2. गुरु-सेवा- श्रावक का दूसरा कर्तव्य गुरु की सेवा एवं उनका विनय करना है । भक्तिपूर्वक गुरु का वन्दन करना,उनका सम्मान करना और उनके उपदेशों का श्रवण करना।
3. स्वाध्याय-आत्मस्वरूप का चिन्तन और मनन। इसके साथ-साथ ही आत्मस्वरूप का निर्वचन करने वाले आगमग्रन्थों का पठन-पाठन आदि भी स्वाध्याय है।
4. संयम- संयम का अर्थ है-अपनी वासनाओं और तृष्णाओं में कमी करना। श्रावक का कर्तव्य है कि वह वासनाओं और तृष्णाओं पर संयम रखे।
5. तप-तप श्रावक की दैनिक-चर्या का पाँचवाँ कर्म है। श्रावक को यथाशक्य अनशन, रस-परित्याग या स्वादजय आदि के रूप में प्रतिदिन तप करना चाहिए।
___ . 6. दान-श्रावक का ठवाँ दैनिक आवश्यक कर्म दान है। प्रत्येक श्रावक को प्रतिदिन श्रमण (मुनि), स्वधर्मी बन्धुओं और असहाय एवं दुःखीजनों को कुछ न कुछ दान करना चाहिए।
हिन्दू-धर्म के गृहस्थ के षट्कर्म-तुलनात्मक-दृष्टि से विचार करने पर हम देखते हैं कि हिन्दू-धर्म में भी गृहस्थ के लिए षट्कर्मों का विधान है। पाराशरस्मृति में निम्न षट्कर्म बताए गए हैं - 1. सन्ध्या, 2. जप 3. होम, 4. देवपूजा 5. अतिथिसत्कार एवं 6. वैश्यदेव (पाराशरस्मृति 1/39)
श्रावक की दिनचर्या-आचार्य हेमचन्द्र ने श्रावक की दिनचर्या का वर्णन करते हुए योगशास्त्र में लिखा है कि श्रावक ब्राह्ममुहूर्त में उठकर धर्म-चिन्तन करे, तत्पश्चात् पवित्र होकर अपने गृह-चैत्य में जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करे, फिर गुरु की सेवा में उपस्थित होकर उनकी सेवाभक्ति करे । तत्पश्चात्, धर्मस्थान से लौटकर आजीविका के स्थान में जाकर इस प्रकार धनोपार्जन करे कि उसके व्रत-नियमों में बाधा न पहुँचे । इसके बाद, मध्याहकालीन साधना करे और फिर भोजन करके शास्त्रवेत्ताओं के साथ शास्त्र के अर्थ का विचार करे। पुनः, संध्यासमय देव, गुरु की उपासना एवं प्रतिक्रमण आदिषट्-आवश्यक क्रिया करे, फिर स्वाध्याय करके अल्पनिद्रा ले। (योगशास्त्र 3/121-131)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org