SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 346 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन प्रश्न है, कुछ प्राचीन दिगम्बर-आचार्यों और समकालीन श्वेताम्बर जैन-आचार्यों ने स्वावलम्बन की महत्ता पर काफी जोर दिया है। हिंसा-अहिंसा की विवक्षा की दृष्टि से उनका कहना है कि दूसरे के द्वारा व्यावसायिक-दृष्टि से वृहत् मात्रा में उत्पादित वस्तुओं के उपभोग से महारम्भ (विशाल पैमाने पर होने वाली हिंसा) का अनुमोदन होता है, क्योंकि वहाँ उत्पादक की दृष्टि विवेकपूर्ण न होकर व्यावसायिक या स्वार्थपूर्ण होती है। ऐसी वस्तु का उपभोग करना विशाल पैमाने पर हिंसा को प्रोत्साहन देना है। अनुमोदित महारम्भ की अपेक्षाकृत अल्पारम्भ सदैव ही श्रेष्ठ है ।140 दिगम्बर-सम्प्रदाय में प्रचलित 'शौच' की परम्परा के पीछे भी यही मूल दृष्टि रही है कि एक विचारशील साधक, जो उत्पादन स्वयं करता है, उसमें विवेक की सम्भावना अधिक होती है, अत: वहाँ अल्पारम्भ होता है, महारम्भ नहीं। साधना की दृष्टि से भी यहीअधिक मूल्यवान है कि प्रत्यक्ष में होने वाली अल्प हिंसा से बचने के लिए परोक्ष रूप से होने वाली महाहिंसा का भागीदार नहीं बना जाए। __स्वावलम्बन की सामाजिक-दृष्टि यह भी है कि उसमें उपभोग के लिए उत्पादन होता है, व्यवसाय के लिए नहीं । पहली धारणा में उत्पादन के पीछे जो दृष्टि है, वह मात्र आवश्यकताओं की पूर्ति की है, जबकि दूसरीधारणा में उत्पादन के पीछे दृष्टि अर्थलोलुपता की, तृष्णा की है। नैतिक-विचारणा के आधार पर दूसरी दृष्टि को उचित नहीं कहा जा सकता। स्वावलम्बन को परस्परावलम्बन का विरोधी भी नहीं मानना चाहिए। स्वावलम्बन का यह अर्थ नहीं है कि मैं किसी अन्य से कुछ न लूँ या किसी को कुछ न दूँ। स्वावलम्बन में भी ऐसा लेन-देन तो होता है, लेकिन उसके पीछे व्यवसायदृष्टि या स्वार्थबुद्धि नहीं होती है। वह सहयोग है, व्यापार नहीं। जिस प्रकार परिवार के सदस्य परस्पर सहयोग या स्नेह की दृष्टि से लेन-देन करते हैं, ठीक उसी प्रकार, स्वावलम्बी-समाज में समाज के सदस्य भी आपसी लेन-देन कर सकते हैं, शर्त यही है कि वह लेन-देन सहकार की दृष्टि से हो, व्यवसाय की दृष्टि से नहीं। इस प्रकार, तुलनात्मक-दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि गांधीवाद का जैन आचार-दर्शन से पर्याप्त साम्य है, फिर भी कुछ बातें ऐसी अवश्य हैं, जिनकी मौलिकता का श्रेय गांधीजी को जाता है। जैन विचार-परम्परा के पास अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह के सिद्धान्त तो थे, लेकिन सामाजिक-जीवन में उनका प्रयोग नहीं हुआ था। यह तो महात्मा गांधी ही थे, जिन्होंने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक-क्षेत्रों में उनका व्यापक प्रयोग कर जीवन के सर्वांगीण क्षेत्र में उनकी उपयोगिता और शक्ति का आभास कराया। गांधीवाद में अहिंसा अन्याय के प्रतिकार का अस्त्र बनी है, अनेकांत सर्वधर्म-समानत्व का आधार बना है और अपरिग्रह ट्रस्टीशिपके रूप में एक नई सामाजिकअर्थव्यवस्था का सिद्धान्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy