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गृहस्थ-धर्म
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सम्यक्त्व बन जाते हैं। उनके अनुसार, सर्वधर्म-समन्वय में ही सच्चा धर्म व्यक्त होता है।137 धर्म एक-दूसरे के विरोध में खड़े होकर ही अधर्म बन जाते हैं, लेकिन जब वे समन्वय में होते हैं, तो सद्धर्म बन जाते हैं। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जो विरोधियों के प्रति तटस्थता रखता है, वही विश्व के विद्वानों में अग्रणी है 1381 ___10. स्पर्शभावना-स्पृश्य-अस्पृश्य की समस्या के निराकरण के लिए गाँधीवाद ने स्पर्श-भावना नामक व्रत का विधान किया। छुआछूत की समस्या तो महावीर के युग में भी थी, फिर भी इतनी तीव्र नहीं थी। महावीर ने अपनी संघ-व्यवस्था के निर्माण में स्पृश्यता
और अस्पृश्यता को कोई स्थान नहीं दिया। चाण्डाल कुलोत्पन्न हरकेशीबल, अर्जुन मालाकर जैसे प्रमुख श्रमण और शकडालपुत्र जैसे कुम्भकार गृहस्थ-उपासक उनके संघ में समान रूप से समाविष्ट थे। महावीर ने भी तत्कालीन स्पृश्य और अस्पृश्य की समस्या का धार्मिक-आधार पर निराकरण तो किया था, फिर भी गाँधीजी के समान उसके लिए किसी स्वतन्त्र व्रत का विधान नहीं किया। जहाँ तक गाँधीजी का प्रश्न है, उन्होंने इस समस्या को सामाजिक-दृष्टि से देखा और उसके निराकरण के लिए एक सामाजिक-व्रत की व्यवस्था दी।
11. स्वदेशी (स्वावलम्बन) - गाँधीवाद में स्वदेशी के उपयोग की विचारणा को एक व्रत के रूप में माना गया है। स्वदेशी व्रत का निर्माण राष्ट्रों के व्यावसायिक-शोषण के प्रतिकार के लिए हुआ। यदि इस व्रत का सामाजिक-मूल्य स्वीकार नहीं किया जाता है, तो इसका अर्थ होगा-भौतिक-दृष्टि से समृद्ध राष्ट्रों को अविकसित देशों के शोषण की खुली छूट देना। गाँधीवाद ऐसी समाज-व्यवस्था का विरोध करता है और उसके प्रतिकार के लिए स्वदेशी का व्रत देता है। व्यावसायिक-दृष्टि से स्वदेशी का व्रत जैनदर्शन के दिशापरिमाणव्रत के पर्याप्त निकट है। दिशापरिमाण-व्रत भी व्यक्ति की अर्थलोलुतापूर्ण उस व्यावसायिकशोषणवृत्ति को सीमित करता है, जिसके कारण व्यक्ति स्वग्राम, स्वनगर या स्वदेश में अर्थोपार्जन से सन्तुष्ट न हो, विदेशों के व्यावसायिक-शोषण के द्वारा अपनी धन-लिप्सा की पूर्ति करना चाहता है। वस्तुओं में उपभोगासक्ति की दृष्टि से भी स्वदेशी का व्रत जैनविचारणा के देशावकाशिक-व्रत के पर्याप्त निकट है। जैन-विचारणा के देशावकाशिकव्रत में भी साधक एक विशिष्ट सीमाक्षेत्र के अन्दर की वस्तुओं के उपभोग की मर्यादा बांधता करता है। साध्वी श्री उज्वलकुमारीजी ने देशावकाशिक की तुलना स्वदेशी के व्रत से की है। स्वदेशी का एक दूसरा पहलू स्वावलम्बन है, अर्थात् जिसका उत्पादन हम नहीं कर सकते, उसके उपयोग का हमें अधिकार नहीं है, लेकिन इस कथन पर सामाजिक-दृष्टि से ही विचार करना चाहिए। यद्यपि जैन-श्रमण की आचार-मर्यादा की दृष्टि से यह पहलू जैन-विचारणा के अधिक निकट नहीं आता, लेकिन जहाँ तक गृहस्थ आचार-मर्यादा का
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