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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
खिलाने में आनन्दमाने स्वयं के खाने में नहीं, क्योंकि यह मनुष्य स्वभाव है कि आनन्द जब तक दूसरे की आँखों में प्रतिबिम्बित नहीं होता, तब तक वह मेरे लिए भी पूर्ण नहीं बनता है। भगवान बुद्ध ने कहा है कि अकेले स्वादिष्ट भोजन करना अवनति का कारण है (सुत्तनिपात 6/12) दादाधर्माधिकारी के शब्दों में, अस्वाद का एक सामाजिक-अर्थ है-उत्पादन मेरे लिए नहीं होगा- समाज के लिए होगा (सामाजिक-हित के लिए होगा)। जैन-दर्शन में अस्वाद के इस सामाजिक-पक्ष का विकास तो नहीं देखा जाता, लेकिन उसके वैयक्तिकपक्ष का विधान अवश्य है। श्रमण-जीवन के लिए तो अस्वादकीआवश्यकता अनिवार्य रूप से स्वीकार की ही गई है, लेकिन गृहस्थ-जीवन के लिए भी उपभोग-परिभोग-परिमाणव्रत के द्वारा अस्वाद की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा दी गई है। उपभोग की वस्तुओं की सीमारेखा निश्चित करना भी स्वाद-जय का ही एक प्रयास है।
8. अभय-निर्भयता भी गाँधीवाद में एक व्रत है। सत्याग्रह और अहिंसा कीशक्ति में दृढ़ विश्वास के लिए निर्भयता एक आवश्यक तत्त्व है। निर्भयता के अभाव में अहिंसा और सत्याग्रह की साधना असम्भव है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि भयभीत साधना से विचलित हो जाता है, वह कर्त्तव्यभार या दायित्व का निर्वाह भी नहीं कर सकता।133 उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार भी भय से उपरत साधक ही अहिंसा का पालन कर सकता है।134 जैन-विचारणा में अभय को महत्वपूर्ण स्थान है, अभय करना और अभय होना ही जैनसाधना का सार है। श्रावक के बारह व्रतों में अनर्थदण्डविरमणव्रत ही अभय का व्रत है। भय एक अनर्थदण्ड है, क्योंकि उसमें व्यक्ति अनावश्यक दुश्चिन्ताओं से घिरा रहता है।135 अनर्थदण्ड से विरत होने के लिए निम्न दुश्चिन्तों, अर्थात् आर्तध्यान का छोड़ना आवश्यक है- 1. इष्ट के वियोग की चिन्ता, 2. अनिष्ट के संयोग की चिन्ता 3. रोग-चिन्ता, 4. निदान (उपलब्धि की चिन्ता)। निर्भयता अहिंसा की पहली शर्त है। भय से कायरता का जन्म होता है और कायर अहिंसक नहीं होता। गाँधीजी और जैन-विचार इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि अहिंसा वीर का धर्म है, कायर का नहीं।
9. सर्वधर्म-समानत्व-सर्वधर्म-समानत्व का व्रत गाँधीवाद की विशेषता है। गाँधीवाद ने इस व्रत के द्वारा धर्म के नाम पर होने वाले संघर्षों को समाप्त करने का प्रयास किया है। गाँधीजी सभी धर्मों में सत्य का दर्शन करते हैं और इसीलिए सभी धर्मों के प्रति न केवल सहिष्णुता और समादर का भाव होना चाहिए, वरन् हमें यह भी मानना चाहिए कि सभी धर्मों में सत्य निहित है। जैन-परम्परा में चाहे सर्वधर्म-समानता की बात व्यवहार्य नहीं रही हो, लेकिन सैद्धान्तिक-रूप में सर्वधर्म-सत्यता जैन-विचारणा में स्वीकृत है। जैनदार्शनिक जैन-दर्शन को सभी मिथ्या दर्शनों का समूह मानते हैं।136 उनके अनुसार तो जिन्हें अलग-अलग रूप में अधर्म या मिथ्यामत कहा जाता है, वे सभी मिलकर सत्यधर्म या
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