________________
गृहस्थ-धर्म
प्रकार, आचार्य सोमदेव ने दिवामैथुनविरति के स्थान पर रात्रिभोजनविरति - प्रतिमा का विधान किया है। 143
दोनों परम्पराओं में एक महत्वपूर्ण अन्तर यह भी है कि सामान्यतया श्वेताम्बरपरम्परा में इन प्रतिमाओं के पालन के पश्चात् पुनः पूर्व अवस्था में लौटा जा सकता है, लेकिन दिगम्बर - परम्परा में प्रतिज्ञा आजीवन के लिए होती है और साधक पुनः पूर्व अवस्था की ओर नहीं लौट सकता। यही कारण है कि जहाँ दिगम्बर- परम्परा में परिग्रहत्यागप्रतिमा को स्वतन्त्र स्थान दिया गया, वहाँ श्वेताम्बर - परम्परा में उसको स्वतन्त्र स्थान नहीं दिया गया है, क्योंकि साधक यदि पुनः पूर्वावस्थारूप गृही- जीवन में लौट सकता है, तो उसको परिग्रह की आवश्यकता होगी, अतः साधक मात्र आरम्भ का त्याग करता है, परिग्रह का नहीं । श्वेताम्बर - परम्परा में प्रतिमा के पालन का न्यूनतम एवं अधिकतम समय निश्चित कर दिया गया है, अधिकतम समय प्रत्येक प्रतिमा के साथ क्रमशः एक - एक मास बढ़ता जाता है और अन्त में ग्यारहवीं श्रमणभूत प्रतिमा की अधिकतम समयावधि ग्यारह मास मान ली गई है, जबकि दिगम्बर - परम्परा में समय-मर्यादा का कोई विधान नहीं है। उसमें इन प्रतिमाओं को आजीवन के लिए ग्रहण किया जाता है। गृहस्थ-साधना की इन विभिन्न भूमिकाओं के रहने की निम्नतम समय-सीमा का अर्थ तो समझ में आता है कि इस अवधि तक उस भूमिका में रहकर साधक अपनी स्थिति एवं मनोबल का इतना विकास कर ले कि अग्रिम भूमिका में जाने पर साधना से पतित होने की सम्भावना न रहे, लेकिन अधिकतम सीमा निर्धारित करने की बात समझ में नहीं आती, क्योंकि उस निर्धारित अधिकतम अवधि के समाप्त होने पर दो ही विकल्प बचते हैं, या तो साधक आगे की दिशा
349
प्रगति करे, अथवा नीचे की ओर लौट जाए। जिस साधक का आत्मबल इतना मजबूत नहीं है कि वह आगे बढ़ सके, उसके लिए नीचे उतरने का मार्ग ही शेष रहता है, जो कि नैतिक प्रगति की दृष्टि से अच्छा नहीं कहा जा सकता । श्वेताम्बर - आगम उपासकदशांग के मूलपाठ में समय - मर्यादा का कोई विधान नहीं है, यद्यपि दशाश्रुतस्कन्ध तथा उपासकदशांग की टीकाओं में एवं बाद के अन्य ग्रन्थों में समय - मर्यादा का निर्देश है। श्वेताम्बर-परम्परा में इन विकासात्मक भूमिकाओं को उपवास आदि तपस्या के समान तपविशेष मान लिया गया है, जबकि वस्तुतः ये गृहस्थ-धर्म के निम्नतम रूप से संन्यास के उच्चतम आदर्श तक पहुँचने में मध्यावधि-विकास की अवस्थाएँ हैं, जिन पर साधक अपने बलाबल का विचार करके आगे बढ़ता है । ये भूमिकाएँ यही बताती है कि जो साधक एकदम निवृत्तिपरक - संन्यासमार्ग को ग्रहण नहीं कर सकता, वह गृही - जीवन में रहकर भी
Jain Education International
-
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org