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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
भगवान् बुद्ध ने भी भगवान् महावीर के पाँच अणुव्रतों के समान ही गृहस्थ-उपासकों के लिए पाँच शीलों का उपदेश किया है। बौद्ध-विचारणा के गृहस्थ जीवन के पाँच शील जैन- विचारणा के अणुव्रतों के समान ही हैं, अन्तर केवल यह है कि भगवान् बुद्ध का पाँचवाँ शीत निषेध है, जबकि जैन- विचारणा का पाँचवाँ अणुव्रत परिग्रह-परिमाण है। ऐसा प्रतीत होता है कि बौद्ध-विचारणा में गृहस्थ - उपासक के लिए परिग्रह-मर्यादा को इतना अधिक महत्व प्रदान नहीं किया गया, जितना कि जैन- परम्परा में उसे दिया गया है, यद्यपि बुद्ध के अनेक वचन परिग्रह की मर्यादा का संकेत करते हैं । भगवान् बुद्ध कहते हैं कि 'जो मनुष्य खेती, वास्तु (मकान), हिरण्य (चाँदी - स्वर्ण), गो, अश्व, दास, बन्धु इत्यादि की कामना करता है, उसे वासनाएँ दबाती हैं और बाधाएँ मर्दन करती हैं, तब वह पानी में टूटी नाव की तरह दुःख में पड़ता है 7 । बौद्ध-विचारणा के मद्य-निषेध का महत्व तो जैनविचारणा में स्वीकार किया गया, लेकिन उसके लिए स्वतन्त्र अणुव्रत की मान्यता जैनागमों में नहीं है। मद्यध-निषेध को सातवें उपभोग - परिभोग नामक अणुव्रत के अन्तर्गत ही मान लिया गया है । यदि हम बौद्ध - विचारणा की दृष्टि से गृहस्थ-धर्म का विवेचन करें, तो हमें जैन- विचारसम्मत गृहस्थ जीवन के बारह व्रतों की धारणा के स्थान पर अष्टशील एवं भिक्षु संघ-संविभाग की धारणा मिलती है। (1) हिंसा - परित्याग (प्राणातिपात - विरमण), (2) चोरी - परित्याग ( अदत्तादान - विरमण), (3) अब्रह्मचर्य - परित्याग या परस्त्रीअनातिक्रमण (मैथुन - विरमण या स्वपत्नी - सन्तोषव्रत ), (4) असत्य - परित्याग (मृषावादविरमण), (5) मद्यपान-परित्याग, (6) रात्रि एवं विकाल भोजन- परित्याग, ( 7 ) माल्यगन्ध-धारण- परित्याग, (8) उच्च शय्या - परित्याग । ( अन्तिम तीन शीलों का सम्बन्ध उपोषथ से है।) (9) भिक्षुसंघ-संविभाग (अतिथिसंविभाग- व्रत ) ।
तुलना
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इस प्रकार, जैन- विचारणा के परिग्रह - परिमाण - व्रत एवं दिशापरिमाण - व्रत का विवेचन बौद्ध - विचारणा में स्पष्ट रूप से उपलब्ध नहीं होता है । जैन- विचारणा के सामायिक व्रत को सम्यक्समाधि के अन्तर्गत माना जा सकता है, यद्यपि उसका शील (व्रत) के रूप में निर्देश बौद्ध-ग्रन्थों में नहीं है। इसी प्रकार, जैन- देशावकाशिक - व्रत को बौद्ध-उपोषथ के अन्तर्गत तथा बौद्ध-मद्यपान एवं रात्रिभोजन- परित्याग को जैन उपभोगपरिभोग- व्रत का ही आंशिक रूप माना जा सकता है। दूसरी अपेक्षा से, विकाल भोजन, माल्यगन्धधारण और उच्च शय्या परित्याग-तीनों शील- उपोषथ के विशेष अंग होने से जैन प्रोषध - व्रत से तुलनीय हैं।
बौद्ध-विचारणा में भी गृहस्थ-उपासक के लिए निषिद्ध व्यवसायों का उल्लेख है।
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