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गृहस्थ- -धर्म
मेधावी होता है, वही यश को प्राप्त करता है, अर्थात् उपर्युक्त गुणों से युक्त होकर ही यशस्वी गृहस्थ - जीवन जिया जा सकता है। " (5) गृहस्थ - उपासक को इन दुर्गुणों से बचने का निर्देश दिया है - (अ) जीव-हिंसा, चोरी, झूठ और परस्त्रीगमन - क्योंकि ये कलुषित कर्म हैं । (ब) जुआ, कुसंगति, आलस्य, अतिनिद्रा, अनर्थ करना, लड़ना, झगड़ना और अतिकृपणता कलुषित कर्म हैं, क्योंकि ये ऐश्वर्य - विनाश के कारण हैं । (स) मद्यपान - यह धन की हानि करता है, कलह को बढ़ाता है, रोगों का घर है, अपयश को उत्पन्न करता है, नाशक और बुद्धि को दुर्बल बनाने वाला है। 2
अष्टशील
सुत्तनिपात में धम्मिकसुत्त में बुद्ध ने गृहस्थ-धर्म के अष्टशील का विवेचन किया है। वे कहते हैं कि 'मैं तुम्हें गृहस्थ-धर्म बताता हूँ, जिसके आचरण से श्रावक सदाचारी होता है, क्योंकि सम्पूर्ण भिक्षु धर्म परिग्रही से प्राप्त नहीं है । '
पंच सामान्यशील (1) अहिंसा - शील- संसार के स्थावर और जंगम, सब प्राणियों के प्रति हिंसा का त्याग, न तो प्राणी का वध करे, न कराए और न करने की दूसरों अनुमति ही दे । (2) अचौर्य - शील- दूसरे की समझी जाने वाली किसी चीज को चुराना त्याग दे, न चुराए और न चुराने की अनुमति ही दे । चोरी का सर्वथा परित्याग करे । (3) ब्रह्मचर्य या स्वपत्नी - सन्तोष - जलते कोयले के गड्ढे की तरह विज्ञ अब्रह्मचर्य को त्याग दे । ब्रह्मचर्य का पालन असम्भव हो, तो पर- स्त्री का अतिक्रमण न करे । (4) अमृषावाद - शील- किसी सभा या परिषद् में जाकर न तो एक-दूसरे को असत्य बोले, न बुलवाए और न बोलने की अनुमति ही दे । मिथ्या - भाषण सर्वथा त्याग दे । (5) मद्यपानविरमण - शील- इस धर्म का इच्छुक गृहस्थ मद्यपान का परिणाम उन्माद जानकर न तो उसका सेवन करे, न पिलाए और न पीने की अनुमति दे ।
तीन उपोषथ शील* (6) विकाल भोजन- परित्याग - रात्रि में एवं विकाल में भोजन न करे । ( 7 ) माल्य- गन्ध - विरमण - माला धारण न करे, सुगन्धि का सेवन न करे । ( 8 ) उच्च शय्या - विरमण - काठ, जमीन या सतरंजी पर लेटे ।
भिक्षुसंघ-संविभाग 5 अन्न और पान से अपनी शक्ति के अनुसार श्रद्धापूर्वक प्रसन्नता से भिक्षुओं को दान दे।
निषिद्ध व्यापार - परित्याग" - पाँच व्यापार उपासक के लिए अकरणीय हैं(1) अस्त्रशस्त्रों का व्यापार, (2) प्राणियों का व्यापार, (3) मांस का व्यापार, ( 4 ) मद्य का व्यापार, (5) विष का व्यापार । इन पाँच व्यवसायों का परित्याग कर किसी धार्मिकव्यापार में लगे (पयोजये धम्मिकं सो वाणिज्जं -सुत्तनिपात 25/29) ।
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