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गृहस्थ-धर्म
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अन्तर यही है कि जैन-विचारणा में उनकी संख्या पन्द्रह है, जबकि बौद्ध-विचारणा में केवल पाँच है। जहाँ जैन-विचारणा के द्वारा गृहस्थ-उपासक के लिए पाँच अणुव्रतों की व्यवस्था है, वहाँ बौद्ध-विचारणा में पंचशील की व्यवस्था है, लेकिन फिर भी दोनों में अन्तर यह है कि बौद्ध-विचारणा में भिक्षु एवं गृहस्थ-उपासक के लिए आचरणीय पंचशील में कोई अन्तर नहीं है। गृहस्थ-उपासक की सीमाओं का ध्यान रखकर उनमें कोई संशोधन नहीं किया गया है, उदाहरणार्थ -सुत्तनिपात में गृहस्थ-धर्म के उपदेश में गृहस्थ-उपासक के लिए त्रस एवं स्थावर-दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा का निषेध है, जबकि गृहस्थउपासक का स्थावर प्राणियों की हिंसा से विरत होना सम्भव नहीं है। जैन-विचारणा भिक्षु के पाँच महाव्रतों को काफी लचीला बनाकर अणुव्रतों के रूप में उन्हें गृहस्थ-उपासक के लिए प्रस्तुत करती है, जिससे उन व्रतों की प्रतिज्ञाओं का सम्यक् परिपालन असंभव न हो। दूसरे, जहाँ जैन-विचारणा में अणुव्रतों की प्रतिज्ञा का विधान अधिकांश रूप में मनसाकृत, वाक्कृत, कर्मणाकृत (करना), मनसाकारित, वाक्कारित और कायकारित (करवाना)इन छ: भंगों या छः से कमभंगों से किया गया है, वहाँ तौर-विचारणा में नौ भंग का विधान किया गया लगता है, क्योंकि सुत्तनिपात में जहाँ हिंसा-विरमण, मृषा-विरमण और अदत्तादान-विरमण में कृत, कारित और अनुमोदित की कोटियों का विधान किया गया है, जो मनसा, वाचा, कर्मणा की दृष्टि से नौ बन जाती हैं, जैन-विचारणा केवल साधु के लिए ही नवभंग (नवकोटि) प्रतिज्ञा का विधान करती है, यद्यपि ब्रह्मचर्य या परस्त्री-अनतिक्रमण की प्रतिज्ञा में जैन और बौद्ध-दोनों दृष्टि भंग-विधान नहीं करती हैं-ऐसा सुत्तनिपात के उपरोक्त वर्णन से लगता है। वहाँ मात्र यही कहा गया है कि ब्रह्मचर्य का पालन असम्भव हो, तो परस्त्री का अतिक्रमण न करे। काल-दृष्टि से विचार करने से जैन-विचारणा में पाँच अणुव्रतों और तीन गुणव्रतों की प्रतिज्ञा जीवन-पर्यन्त के लिए होती है, इनके प्रतिज्ञा-सूत्रों से इसकी पुष्टि होती है । बौद्ध-विचारणा में भी पंचशील को यावज्जीवन के लिए ग्रहण किया जाता है। शेष तीन शील, जिन्हें उपोषथ-शील भी कहा जाता है, शिक्षाव्रतों के समान एक विशेष समयावधि (एक दिन) के लिए ही ग्रहण किए जाते हैं।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि बौद्ध-परम्परा में वर्णित गृहस्थ-आचार जैन-परम्परा से बहुत-कुछ साम्य रखता है। हिन्दू आचार-दर्शन में गृहस्थ-धर्म
यद्यपि गीता में जैन दर्शन के समान व्रत-व्यवस्था का अभाव है, तथापि जैनगृहस्थ के आचार से सम्बन्धित अनेक तथ्य ऐसे हैं, जिन पर तुलनात्मक-दृष्टि से विचार किया जा सकता है।
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