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________________ गृहस्थ-धर्म 329 सामग्री की मात्रा और भी अधिक सीमित कर ली जाती है और साधक उस निश्चित क्षेत्रसीमा के बाहर न तो स्वयं ही कोई प्रवृत्ति करता है और न करवाता है। उस निश्चित सीमाक्षेत्र में भी साधक त्रस और स्थावर-सभी प्रकार की हिंसा का परित्याग कर पूर्ण अहिंसकवृत्ति का पालन करता है। नैतिक-दृष्टि से इस व्रत का लक्ष्य अशुभ प्रवृत्तियों के सीमाक्षेत्र में कमी करके जीवन में अनुशासन लाने का प्रयास करना है। आज भी श्वेताम्बरस्थानकवासी-परम्परा में 'दयाव्रत' के नाम से सामूहिक रूप से इस व्रत के पालन का बहुप्रचलन है। इस व्रत के पाँच अतिचार (दोष) हैं- 1. आनयन-प्रयोग - मर्यादित क्षेत्र के बाहर से वस्तु लाना या मँगवाना आदि, 2. प्रेष्य-प्रयोग - मर्यादित क्षेत्र के बाहर वस्तु भेजना या ले जाना, 3. शब्दानुपात - निर्धारित क्षेत्र के बाहर किसी को खड़ा देखकर शब्द-संकेत करना (खांसकर या आवाज देकर) 4. हाथ आदि अंगों से संकेत करना, 5. पुद्गलप्रक्षेप-बाहर खड़े हुए व्यक्ति को अपना अभिप्राय जताने के लिए कंकड़ आदि फेंकना। 11. प्रोषधोपवास-व्रत यह गृहस्थ-उपासक का शिक्षाव्रत है। श्वेताम्बर-परम्परा में शिक्षाव्रतों में यह तीसरा है । आत्मगवेषणा या स्वस्वरूप का बोध, धर्माराधना और गृहस्थ-जीवन की क्रियाओं से यथासम्भव निवृत्ति का प्रयास-यही मूलदृष्टि इन शिक्षाव्रतों के पीछे है। सामायिक, देशावकाशिक और पौषधोपवास-व्रतों में क्रमशः इस दृष्टि का विकास अवलोकनीय है। सामायिक में साधक-जीवन की सावध-प्रवृत्तियों से दूर हटकर समत्वकी आराधना और स्वस्वरूप के बोध का कुछ समय (48 मिनिट) के लिए अभ्यास करता है। देशावकाशिक-व्रत में समय की यह सीमा 12 से 15 घंटे की और प्रोषघ में सम्पूर्ण दिवस की हो जाती है। गृहस्थ-उपासक जीवन के झंझावातों से दूर हटकर कम से कम सप्ताह में एक दिवस धर्माराधना और आत्मगवेषणा या भेद-विज्ञान की चिन्तना में व्यतीत करे, यही इस व्रत का उद्देश्य है। बौद्धागम अंगुत्तरनिकाय के सन्दर्भ से भी ऐसा लगता है कि सावद्यप्रवृत्तियों से बचने के विचार के साथ-साथ भेद-विज्ञान का अभ्यास ही इस व्रत की आराधना का प्रमुख प्रयोजन था। प्रोषध शब्द उपवसथ से बना है, जिसका अर्थ है-निकट वास करना। अपने-आपके निकट रहना, अर्थात् पर-स्वरूप से अलग स्वस्वरूप में स्थित रहना, यही प्रोषध का सच्चा अर्थ है। इस व्रत की आराधना प्रत्येक पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी तथा अमावस्या और पूर्णिमा को की जाती है। साधक दिन भर धर्मस्थान या उपासनागृह में निवास करता है। इस व्रत की आराधना में सम्पूर्ण दिवस (24 घंटे) के लिए निम्न बातों के त्याग की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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