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________________ 328 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन __ वचन के दस दोष- (1) असभ्य वचन बोलना, (2) बिना विचारे बोलना (सहसा बोलना), (3) स्वच्छन्दतापूर्वक बोलना या अधिक वाचाल होना, (4) संक्षेप या गढ़ा में गेलना अथवाअयथार्थ रूप में योजना या पढ़ना, (5) जिन वचनों से संघर्ष उत्पन्न हो, ऐसे वचन बोलना , (6) विकथा - (स्त्री, : न्य, भोजन एवं लौकिक) बातों के सम्बन्ध में चर्चा करना, (7) हास्य-हँसी-मजाक करना, (९) अशुद्ध उच्चारण करना, (9) असावधानीपूर्वक बोलना या निरपेक्ष रूप से बोलना, (10) अस्पष्ट उच्चारण करना या गुनगुनाना। शरीर के बारह दोष'3-(1)असभ्य आसन से बैठना, (2) अस्थिर आसन (बारबार स्थान बदलना), (3) दृष्टि की चंचलता, (4) हिंसक-क्रिया करना, अथवा उसको करने का संकेत करना, (5) सहारा लेकर बैठना, (6) अंगों का बिना किसी प्रयोजन के आकुंचन और प्रसारण करना, (7) आलस्य, (8) शरीर के अंगों को मोड़ना, (9) शरीर के मलों का विसर्जन करना, (10) शोकग्रस्त मुद्रा में बैठना, बिना प्रमार्जन के अंगों का खुजलाना, (11) निद्रा और (12) प्रकम्पित होना, कुछ आचार्य इसके स्थान पर वैयावृत्य दोष मानते हैं, जिसका अर्थ है-साधनाकाल में दूसरे से पगचम्पी, मालिश आदि सेवा लेना। उपासकदशांगसूत्र में सामायिकव्रत के पाँच अतिचार हैं - 74-1. मनोदुष्प्रणिधान, 2. वाचोदुष्प्रणिधान, 3. कायदुष्प्रणिधान, 4. सामायिक की समयावधि का ध्यान नहीं रखना, 5. अव्यवस्थित सामायिक करना। 10. देशावकाशिक-व्रत अणुव्रतों और गुणव्रतों की प्रतिज्ञा समग्र जीवन के लिए होती है, जबकि शिक्षाव्रतों की साधना एक विशेष समय तक के लिए की जाती है। उनकी साधना जीवन में एक बार नहीं, वरन् पुनः पुनः की जाती है। परिग्रह-परिमाणव्रत में परिग्रह की मर्यादा, दिशापरिमाणव्रत में व्यवसाय के कार्यक्षेत्र का सीमांकन और उपभोग-परिभोग-परिमाणव्रत में उपभोग-परिभोग की वस्तुओं की मात्रा की सीमा यावज्जीवन के लिए निर्धारित की जाती है, लेकिन जैन-साधना का ध्येय तो संयमकी दिशा में सदैव अग्रसर होते रहना है, साथ ही इस बात का विचार भी रखना है कि उस विकास की ओर अग्रसर होने के पूर्व अभ्यास के द्वारा इतनी पर्याप्त क्षमता अर्जित कर ली जाए कि पुनः पीछे की ओर लौटना न पड़े। गृहस्थ-उपासक का देशावकाशिकव्रत उपर्युक्त तीनों व्रतों की साधना को व्यापक एवं विराट् बनाने के लिए है। इसके द्वारा साधक गृहस्थ जीवन में रहकर ही साधुत्व की पूर्व तैयारी करता है। देशावकाशिकव्रत की साधना में एक-दो या अधिक दिनों के लिए प्रवत्ति की क्षेत्र-सीया एवं उपभोग-परिभोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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