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गृहस्थ-धर्म
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आत्म-स्मृति को जगाकर सच्चे साक्षी के रूप में समदर्शी बन सके, यही इस व्रत के विधान का प्रयोजन है।
समत्व की साधना अप्रमत्त चेतना में ही सम्भव है, लेकिन गृहस्थ जीवन की परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि जब तक सतत अभ्यास न हो, इस अप्रमत्तता को बनाए रखना कठिन है। जीवन की सावद्य-प्रवृत्तियाँ, कषाय और वासनाएँ चेतना को अप्रमत्त और निर्विकार नहीं रहने देती। जैसे मद्यपान के द्वारा बुद्धि विकृत और प्रमत्त बनती है, वैसे ही मावद्य-प्रवृत्तियों एवं वासनाओं में रस लेने से चेतना विकारी और प्रमत्त बन जाती है, अतः उस अपमत्त निर्विकार चेतना की उपलब्धि के लिए सावद्य-प्रवृत्तियों से बचना आवश्यक है। गृहस्थ के लिए यह भी आवश्यक है कि वह यह जाने कि उसे सामायिक में क्या नहीं करना चाहिए। गृहस्थ-जीवन के लिए सामायिक के इस निषेधात्मक-पक्ष का मूल्य तब
और अधिक स्पष्ट हो जाता है, जब हम यह जानें कि भव्य अट्टालिका के निर्माण के पूर्व पुराने मकान के मलबे की सफाई कितनी आवश्यक होती है। समत्व की उपलब्धि के लिए विगलित विचार और आचार का उन्मूलन एक अनिवार्यता है। इतना ही नहीं, चेतना की अप्रमत्तता एवं चित्तवृत्ति को केंद्रित करने के लिए बाह्य-वातावरण भी बहुत महत्व रखता है, अतः उसके सम्बन्ध में भी पर्याप्त विचार आवश्यक है। इन्हीं सब तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए हम यहां सामायिक के सम्बन्ध में विचार करेंगे।
___ सामायिक के विभिन्न पक्ष-प्राणियों के प्रति समत्व, शुभमनोभाव, संयम और आर्तरौद्रध्यान का परित्याग ही सामायिक-व्रत है। इस प्रकार, समत्व और शुभमनोभावये दो सामायिक-व्रत के भावात्मक-पक्ष और संयम और अशुभ मनोवृत्तियों का परित्यागये दो सामायिक-व्रत के निषेधात्मक पक्ष हैं । गृहस्थ के लिए सामायिक-व्रत के इन दोनों पक्षों का सम्यक् परिपालन करना आवश्यक है। इसी प्रकार, गृहस्थ-साधना की दृष्टि से भी सामायिकके द्रव्य-सामायिक और भाव-सामायिक-ऐसे दो पक्षभी होते हैं। द्रव्य-सामायिक, अर्थात् सामायिक का बाह्य-स्वरूप या क्रियाकाण्डात्मक पक्ष, भाव-सामायिक का तात्पर्य चित्तवृत्ति की शुद्धि है। व्यवहार और निश्चय-दृष्टि से भी सामायिक के दो रूप होते हैं। समत्वभाव और आत्म-अवस्थिति (चेतना की जागरूकता) निश्चय या परमार्थ-दृष्टि से सामायिक है, जबकि हिंसक-व्यापारों से निवृत्ति तथा नियमों का परिपालन व्यवहारसामायिक है। सामायिक के लिए चार विशुद्धियाँ मानी गई हैं- 1. काल-विशुद्धि, 2. क्षेत्र-विशुद्धि, 3. द्रव्य-विशुद्धि और 4. भाव-विशुद्धि ।
काल-विशुद्धि- श्रमण-साधक तो सदैव ही सामायिक की साधना में रत रहता है, लेकिन गृहस्थ-साधक के लिए इसकी काल-मर्यादा निश्चित की गई है। सामायिक की
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