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________________ 326 भारतीय आचार - दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन Jain Education International 65 साधना का काल- - निर्णय समय-1 - विशुद्धि के लिए आवश्यक है। जैन दार्शनिकों का कथन है कि समय का काम समय पर ही करना चाहिए, '" असमय या कुसमय पर की गई साधना अधिक फलवती नहीं होती । सामायिक का साधना-काल उभय संध्या - काल, अर्थात् रात्रि एवं दिवस की दोनों सन्धि-वेलाएँ मानी गई हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने इसी मत का समर्थन किया है । " आचार्य कुन्थुसागरजी ने अपने बोधामृतसार में त्रिकाल अर्थात् प्रातःकाल, मध्याह्न-काल और सायंकाल सामायिक- व्रत करने का विधान किया है। 67 उपासकदशांगसूत्र के कुण्डकोलिक अध्याय में मध्याह्न में भी सामायिक करने का निर्देश है, यद्यपि यह विवाद महत्वपूर्ण नहीं है। दोनों सन्धिकाल में सामायिक करना निम्नतम सीमा है, अधिकतम कितनी करे, यह साधक की क्षमता पर निर्भर है। हाँ, अयोग्य समय पर सामायिक करना अशुभ माना गया है। सामायिक के लिए काल-विशुद्धि आवश्यक है। आगम-साहित्य में समयावधि का विधान नहीं है, तथापि श्वेताम्बर व दिगम्बर, सभी परवर्ती ग्रन्थों में सामायिक व्रत की समयावधि एक मुहूर्त्त या 48 मिनट मानी गई है । " समयावधि की इस धारणा के पीछे जैनाचार्यों का तर्क यह है कि व्यक्ति के विचार अस्खलित रूप में एक विषय पर 48 मिनट तक ही केन्द्रित रह सकते हैं, बाद में विचारों में स्खलन आ जाता है । " चित्तवृत्ति को उपर्युक्त समय से अधिक देर तक केन्द्रित नहीं रखा जा सकता, उसके बाद चित्तवृत्ति विचलित हो जाती है, अतः यह आवश्यक था कि सामायिक की - मर्यादा उससे अधिक न हो । क्षेत्र - विशुद्धि (सामायिक के योग्य स्थान ) - कोलाहल से शून्य एकान्त स्थान ही सामायिक के साधना-स्थल माने गए हैं । उपासकदशांगसूत्र के निर्देश भी इसका समर्थन करते हैं । सामान्यतया, धर्माराधना के लिए निश्चित किया हुआ घर का एकान्त कमरा, सार्वजनिक पोषधशालाएँ या उपासनागृह, वनखण्ड या नगर के निकट की वाटिकाएँ अथवा जिनालय (मंदिर) सामायिक के योग्य स्थल हैं। संक्षेप में, सामायिक-साधना का स्थान एकान्त, पवित्र, शान्त एवं ध्यान के अनुकूल वातावरण से युक्त होना चाहिए । उपयुक्त स्थल पर ही सामायिक करना क्षेत्रविशुद्धि है। द्रव्य - विशुद्धि - सामायिक में गृहस्थ - जीवन की वेशभूषा और आभूषण आदि का त्याग किया जाता था, ऐसा निर्देश उपासकदशांग-सूत्र और उसकी टीकाओं से मिलता है। उस युग में मात्र अधोवस्त्र (धोती) ही सामायिक की वेशभूषा थी, यद्यपि वर्त्तमान में उत्तरीय भी ग्रहण किया जाता है। कोमल प्रमार्जनिका एवं आसन तो श्वेताम्बर व दिगम्बरदोनों परम्पराओं में ग्राह्य हैं। श्वेताम्बर - परम्परा में मुखवस्त्रिका भी सामायिक का महत्वपूर्ण उपकरण मानी जाती है । स्वच्छ एवं सादगीपूर्ण उत्तरीय और अधोवस्त्र सामायिक की For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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