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भारतीय आचार - दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन
3. मौखर्य - अधिक वाचाल होना, शेखी बघारना तथा बातचीत में अपशब्दों का उपयोग करना आदि ।
4. संयुक्ताधिकरण - हिंसक - साधनों को अनावश्यक रूप से संयुक्त (तैयार ) करके रखना, जैसे- बंदूक में कारतूस या बारूद भरकर रखना। इनसे अनर्थ की सम्भावनः अधिक बलवती हो जाती है । कुछ विचारकों के अनुसार, हिंसक-शस्त्रों का निर्माण, संग्रह और क्रय-विक्रय भी दोषपूर्ण हैं ।
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5. उपभोगपरिभोगातिरेक - भोग्य सामग्री का आवश्यकता से अधिक संचय करना, क्योंकि ऐसा करने पर दूसरे लोग उसके उपभोग से वंचित रहते हैं तथा सामाजिकजीवन में अव्यवस्था एवं असंतुलन पैदा होता है। चार शिक्षा-व्रत
9. सामायिक - व्रत
सामायिक जैन आचार-दर्शन की साधना का केन्द्र - बिन्दु है। यह साधु - जीवन का प्राथमिक तथ्य और गृहस्थ जीवन का अनिवार्य कर्त्तव्य है। गृहस्थ-साधना की दृष्टि से आचार का कुछ भाव - पक्ष भी होना चाहिए। यद्यपि सामायिक में भी विधि - निषेध के नियम हैं, तथापि उसमें एक भाव-पक्ष की अवधारणा भी की गई है और यही इस व्रत की विशेषता है । सामायिक को शिक्षाव्रत कहा गया है। जैनाचार्यों की दृष्टि में शिक्षा का अर्थ है- अभ्यास। सामायिक, अर्थात् समत्व का अभ्यास । गृहस्थ जीवन के एक आवश्यक कर्तव्य के रूप में तथा गृहस्थ-साधना के एक महत्वपूर्ण व्रत के रूप में इसका जो स्थान है, वह इसके इस भावात्मक मूल्य के कारण है। यद्यपि इसका एक निषेध - पक्ष भी है, तथापि वह हिंसा-अहिंसा की विवक्षा से अधिक अपना स्वतन्त्र मूल्य नहीं रखता । सामायिक की साधना एक ओर आत्म- जाग्रति है, एक सम्यक् स्मृति है, दूसरी ओर समत्व का दर्शन है । आसक्तिशून्य मात्र साक्षीरूप चेतना में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की सच्ची प्रतीति ही जैनविचारणा की सामायिक है, यही नैतिक आचरण की अन्तिम कोटि है और नैतिकता की सच्ची कसौटी भी; जिसके द्वारा साधक अपनी साधना का सच्चा मूल्यांकन कर सकता है। जो स्थान बौद्ध आचार-दर्शन में सम्यक् समाधि का है, वही जैन-साधना में सामायिक का है।
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लेकिन, यह साधना सहज होकर भी अभ्यास-साध्य है। इसमें निरन्तर अभ्यास की अपेक्षा है, क्योंकि प्रमाद, जो कि चेतना की निद्रा है, इसका सबसे बड़ा शत्रु है । प्रमत्त चेतना में समत्व - दर्शन एक मिथ्या कल्पना है। अप्रमत्त मानस में समत्व की आराधना के लिए साधक प्रतिदिन कुछ समय निकाले और इस प्रकार अभ्यास द्वारा स्व की विस्मृति से
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