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________________ गृहस्थ-धर्म 1 प्रदान करना हिंसा की सम्भावना को बढ़ावा देना है, अतः यह भी अनर्थदण्ड है। हिंसकशस्त्र प्रदान करना अन्याय के प्रतिकार का सही उपाय नहीं है । जो व्यक्ति अथवा राष्ट्र अन्याय के विरोध में स्वयं खड़ा नहीं होता और मात्र हिंसा के साधन प्रदान कर यह समझता है कि मैं न्याय की रक्षा करता हूँ, वह न्याय की रक्षा नहीं करता, वरन् उसका ढोंग करता है। 4. प्रमादाचरण - प्रमादाचरण जागरूकता का अभाव है। यह चेतना की नींद है, चेतना का स्वकेन्द्र से विचलन है, आत्मा के समत्व का भंग हो जाना है। यह एक प्रकार की आध्यात्मिक अन्धता है। जैनागमों में इसके पाँच भेद वर्णित हैं- 1. अहंकार 2. कषाय, 3. विषय - चिन्तन, 4. निद्रा और 5. विकथा । पाँचों प्रमाद व्यक्ति की चेतना में ऐसा विकार उत्पन्न करते हैं, जिससे व्यक्ति की चेतना की जागरूकता समाप्त हो जाती है। व्यक्ति अपने-आप में नहीं जीता है। वह स्वयं का स्वामी नहीं होता है। वह यथार्थदृष्टा नहीं रह पाता, जो कि उसका स्व-स्वभाव है। आत्मा का साक्षात्कार केवल अप्रमत्तदशा में ही सम्भव है, जबकि प्रमाद उस अप्रमत्तता का सबसे बड़ा बाधक तत्त्व है। (अ) अहंकार (मद) - अपने रूप-सौन्दर्य, बल, ज्ञान अथवा जाति का अहंकार व्यक्तित्व का विकृत चित्र प्रस्तुत करता है । अहंकार व्यक्ति की आध्यात्मिक-उपलब्धियों में सहायक न होकर उल्टे बाधा उत्पन्न करता है, इसलिए अनर्थदण्ड ही है । (ब) कषाय - क्रोधादि भाव प्रायः सम्यक् जीवन के किसी उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक नहीं होते हैं, अतः अनर्थदण्ड हैं और इसलिए अनाचरणीय भी हैं। (स) विषय - इन्द्रियों की अपने विषयों की प्राप्ति की वासना ही सारी पाप-प्रवृत्तियों का कारण है और मनुष्य में विवेकशून्यता को जन्म देती है । (द) निद्रा- अधिक निद्रा भी आलस्य का ही चिह्न है और आलस्य स्वयं में ही अनर्थदण्ड है । (ई) विकथा - लोगों की भलाई - बुराई की निष्प्रयोजन प्रवृत्ति लोगों में अधिक देखी जाती है, लेकिन इसमें उपलब्धि कुछ भी नहीं होती, वरन् हानि होने की सम्भावना ही अधिक रहती है। व्यक्तियों में अकारण ही वैमनस्य उत्पन्न होने में यह प्रमुख कारण है, अतः अर्थदण्ड के रूप में अनाचरणीय है । 323 इस प्रकार, अपने भेदोपभेद की विस्तृत व्याख्या सहित यह चार प्रकार का अनर्थदण्ड गृहस्थ-साधक के लिए अनाचरणीय कहा गया है। अनर्थदण्ड की प्रवृत्तियों से बचने के लिए जहाँ उपर्युक्त प्रवृत्तियों से निवृत्त होना आवश्यक है, वहीं उन सामान्य दोषों के बारे में भी जाग्रत रहना चाहिए, जो साधक को अनर्थदण्ड की ओर ले जाते हैं । अनर्थदण्डविरमणव्रत के पाँच दोष हैं। 63 1. कन्दर्प - कामवासना को उत्तेजित करने वाली चेष्टाएँ करना, अथवा कामभोग सम्बन्धी चर्चा करना । 2. कौत्कुच्य - हाथ, मुँह, आँख आदि से अभद्र चेष्टाएँ करना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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