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________________ 320 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन विचारकों ने उपभोग-परिभोग-व्रत का निरूपण दो प्रकार से किया है। एक, भोजनसम्बन्धी और दूसरा, व्यवसाय-सम्बन्धी। आजीविका के निमित्त किए जाने वाले व्यवसायों में पन्द्रह प्रकार के व्यवसाय गृहस्थ-साधक के लिए निषिद्ध हैं 55 - 1. अङ्गार-कर्म-कोयले बनाने का व्यवसाय। यद्यपि उपासकदशांगसूत्र में अंगारकर्म में केवल कोयले का व्यवसाय ही वर्णित है, तथापि कुछ टीकाकार आचार्यों ने ईंट पकाने आदि के व्यवसाय को भी उसमें सम्मिलित किया है। कुछ व्याख्याकारों की दृष्टि में इसमें कुम्हार,सुनार, लोहार, हलवाई, भड़भूजा आदि के ऐसे समस्त व्यवसाय समाविष्ट हैं, जिनमें अग्नि को प्रज्ज्वलित करके उसकी सहायता से आजीविकोपार्जन किया जाता है, लेकिन मेरी दृष्टि में सूत्रकार के आशय को अधिक दूरी तकखींचना समुचित नहीं है, क्योंकि उसी सूत्र में सकडालपुत्र नामक कुम्भकार को, जो कुम्हार के व्यवसाय से ही आजीविकोपार्जन करता था , बारह व्रतधारी में एक प्रमुख श्रावक कहा गया है। इसका अर्थ जंगलों में आग लगाकर उन्हें साफ करना भी हो सकता है, क्योंकि उस युग में जनसंख्या के विस्तार से नई कृषि-भूमि की आवश्यकताहुई होगी और लोग आग लगाकर वनों को साफ करके अपने लिए कृषि-भूमि प्राप्त करते होंगे। 2. वन-कर्म-जंगल कटवाने का व्यवसाय, वृत्तिकार ने बीजपेषण अर्थात् चक्की चलाना आदिधन्धे भी इसी में सम्मिलित किए हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में बगीचे लगाकर फल-फूल अथवाशाक-सब्जी आदि के व्यवसाय को भी इसमें सम्मिलित किया है, 58 लेकिन यह अर्थ समुचित नहीं है। मेरी दृष्टि में वन-कर्म का अर्थ वनों को काटकर आजीविकोपार्जन करने से है। 3. शकट-कर्म (साडी कम्म) - शकट, अर्थात् बैलगाड़ी, रथ आदि बनाकर बेचने का व्यवसाय । कुछ विचारक मूल प्राकृत शब्द 'साडीकम्मे' का अर्थ वस्तुओं को सड़ाकर बेचने का व्यवसाय भी करते हैं, अर्थात् ऐसे व्यवसाय, जिनमें वस्तुओं को सड़ाकर धनार्जन किया जाता है, जैसे-शराब बनाना। मेरी दृष्टि में यह दूसरा अर्थ ही उचित है। __4. भाटक-कर्म-बैल, अश्व आदि पशुओं को किराए पर चलाने का व्यवसाय करना। 5. स्फोटी-कर्म-खान खोदना या पत्थर फोड़ने का व्यवसाय करना। 6. दन्तवाणिज्य-हाथी आदि के दाँतों का व्यवसाय करना। उपलक्षण से चमड़े और हड्डी का व्यवसाय भी इसमें सम्मिलित हो जाता है। 7. लाक्षावाणिज्य-लाख का व्यापार करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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