SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गृहस्थ-धर्म 321 8. रस-वाणिय-मदिरा आदि मादक रसों का व्यापार । शाब्दिक-दृष्टि से दूध, दही, घृत, मक्खन, तेल आदि का व्यवसाय भी इसमें सम्मिलित होता है, लेकिन कुछ आचार्यों ने इन व्यवसायों को इसमें सम्मिलित नहीं किया है। कुछ आचार्यों की दृष्टि में मद्य, मांस, मधु आदि महाविगयों (अभक्ष्य) का व्यापार इसमें शामिल है। 9. विष-वाणिज्य-विभिन्न प्रकार के विषों का व्यवसाय करना। उपलक्षण से हिंसक अस्त्र-शस्त्रों का व्यवसाय भी इसी में सम्मिलित है। 10. केश-वाणिज्य-सामान्य रूप से दास-दासी, भेड़-बकरी, प्रभृति केशयुक्त प्राणियों के क्रय-विक्रय का व्यवसाय करना केश-वाणिज्य के अन्तर्गत माना जाता है। कुछ गानाओं के मन में चमरी गाय, लोमड़ी आदि पशु-पक्षियों के बालों एवं रोमयुक्त चमड़े का व्यवसाय भी इसमें सम्मिलित है। दूसरे कुछ आचार्यगण ऊन, मोरपंख आदि के व्यवसाय को भी इसमें सम्मिलित करते हैं। 11. यन्त्रपीड़न-कर्म (जन्तपीलन-कर्म) - यन्त्र, सांचे, घाणी, कोल्हू आदि का व्यवसाय । उपलक्षण से उन सभी अस्त्र-शस्त्रों का व्यापार, जिससे प्राणियों की हिंसा की सम्भावना हो, इसमें समाहित है। 12. निलांछन-कर्म-बैल आदि को नपुंसक बनाने का व्यवसाय। 13. दावाग्नि-दापन-जंगल में आग लगाना। 14. सरोवर-द्रह-तड़ाग-शोषण-तालाब, झील, जलाशय आदिको सुखाना। 15. असतीजन-पोषणता-व्यभिचारवृत्ति के लिए वेश्याओं आदि को नियुक्त करना एवं व्यभिचारवृत्ति करवाकर उनके द्वारा धनोपार्जन करना। कुछ आचार्यों की दृष्टि में चूहों को मारने के लिए बिल्ली अथवा कुत्ते आदि क्रूरकर्मी प्राणियों को पालना भी इसी में सम्मिलित है। बौद्ध-परम्परा में निषिद्ध व्यवसाय-भगवान् बुद्ध ने जीविकार्जन के साधनों की शुद्धता को आवश्यक माना है। अष्टांग-साधनामार्ग में सम्यक् आजीवको साधना का एक आवश्यक अंग बताया गया है। बौद्धधर्म में भी गृहस्थ-उपासकों के लिए कुछ व्यवसायों को अयोग्य माना गया है।भगवान् बुद्ध ने आजीविका के जिन साधना को वज्य कहा है, उनमें हिंसा, अहिंसा का विचार ही प्रमुख है। बौद्ध आचार-प्रणाली में भी निम्न हिंसकव्यापारों का गृहस्थ के लिए निषेध है। अंगुत्तरनिकाय में भगवान् बुद्ध कहते हैं, भिक्षुओं! पांच व्यापार उपासक के लिए अकरणीय हैं। कौनसे पांच - 1. सत्थवणिज्जा (शस्त्रों का व्यापार), 2. सत्तवणिज्जा (प्राणियों का व्यापार), 3. मंचवणिज्जा (मांस का व्यापार), 4. मज्जवणिज्जा (मद्य(शराब) का व्यापार), 5. विसवणिज्जा (विष का व्यापार)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy