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गृहस्थ-धर्म
प्रकार और परिमाण । (6) स्नानविधि - स्नान के लिए पानी का मात्रा । (7) वस्त्रविधि - पहनने के वस्त्रों का प्रकार जैसे - ऊनी, सूती, रेशमी तथा उनकी संख्या । (8) विलेपनविधिशरीर पर लेप करने की वस्तुएँ, जैसे अगर, चन्दन, कुंकुम आदि, उनकी संख्या । (9) पुष्प - विधि-1 -माला और सूंघने के पुष्पों के प्रकार, जैसे- चमेली, मोगरा आदि । (10) आभरणविधि - आभूषणों के प्रकार एवं संख्या । ( 11 ) धूपविधि - उन वस्तुओं की संख्या एवं मात्रा, जिन्हें जलाकर कमरों को सुगन्धित किया जाता है । (12) पेय-पेय पदार्थ, जैसे- शर्बत आदि के प्रकार एवं मात्रा । (13) भोजन - विभिन्न प्रकार के भोज्य पदार्थों में से स्वतः के भोजन के उपयोग के लिए भोज्य पदार्थों की संख्या एवं मात्रा की मर्यादा । (14) ओदन - चावलों के प्रकार एवं मात्रा । ( 15 ) सूप - दालों की संख्या एवं मात्रा । ( 16 ) विगय- दही, तेल, घृत आदि के प्रकार एवं मात्रा । (17) शाक-बथुआ, पालक आदि शाकों के प्रकार एवं मात्रा। (18) माधुरक-मीठे फल, सूखा मेवा, बादाम आदि के प्रकार एवं मात्रा । ( 19 ) जेमन - दहीबड़े, पकोड़े आदि चरकी फरफरी वस्तुओं के प्रकार एवं मात्रा 1 (20) पानी पीने के पानी का परिमाण एवं प्रकार । (21) मुखवास - ताम्बूल, इलायची, लवंग, पान, सुपारी आदि के प्रकार एवं मात्रा। (22) वाहन - घोड़ा, गाड़ी, नाव, जहाज आदि सवारी के साधनों की जातियाँ एवं संख्या । ( 23 ) उपानह -जूते, पगरखी, मौजे आदि की जाति एवं संख्या । ( 24 ) सचित्त - अन्य सचित्त वस्तुओं की जाति एवं परिमाण । (25) शयन-शय्या, पलंग आदि के प्रकार एवं संख्या । (26) द्रव्य - अन्य वस्तुओं की जाति एवं मात्रा । स्मरण रहे कि एक प्रकार के पदार्थों से बनी हुई वस्तुएँ भी अपने स्वाद के परिवर्तन के आधार पर अलग-अलग वस्तुओं में गिनी जाती हैं, जैसे-गेहूँ एवं घी से बनी रोटी, पूड़ी, पराठे आदि । उपभोग - परिभोग- व्रत के भोजनादि की अपेक्षा से पाँच अतिचार हैं 54 - ( 1 ) मर्यादा उपरान्त सचित्त (सजीव) वस्तु का आहार । (2) सचित्त- प्रतिवद्धाहार । (3) अपक्वाहार - कच्ची वनस्पति अथवा बिना पके हुए अन्नादि का आहार । (4) दुष्पक्वाहार - पूरी तरह न पकी हुई वस्तुएँ खाना। (5) तुच्छौषधि - भक्षणता - ऐसे पदार्थों IT भक्षण करना, जो खाने योग्य नहीं हों, अथवा जिनमें खाने योग्य भाग अत्यल्प और फेंकने योग्य भाग बहुत अधिक हो ।
निषिद्ध व्यवसाय - उपभोग- परिभाग के लिए धनार्जन आवश्यक है। यदि धनार्जन या व्यवसाय प्रणाली अशुद्ध है, तो उपभोग - परिभोग की शुद्धता एवं सम्यक्ता भी दूषित हो जाती है, अतः जैन- विचारकों ने न केवल आहारविहार की सम्यक्ता एवं संयम पर जोर दिया, वरन् आजीविका-उपार्जन की शुद्धि पर भी पर्याप्त जोर दिया है। आजीविकोपार्जन एवं उपभोग - परिभोग का सम्बन्ध अत्यन्त निकट का है। इस तथ्य को दृष्टि में रखकर जैन
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