________________
318
भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
उपर्युक्त दिशाओं के सम्बन्ध में गृहस्थ-साधक अपनी परिस्थिति के अनुसार जो भी सीमाएँ निश्चित करता है, उनका अतिक्रमण कर उस क्षेत्र के अर्थोपार्जन एवं अन्य पापप्रवृत्तियों का सेवन करना व्रतभंग माना जाता है, लेकिन यदि यह सीमातिक्रमण अज्ञान या असावधानी से हो, तो व्रतभंग नहीं होता, यद्यपि वह व्रत दूषित अवश्य हो जाता है। इस व्रत के पाँच अतिचार हैं 1- (1) उर्ध्वदिशा, (2) अधोदिशा और (3) तिर्यक्-दिशाओं की मर्यादाओं का अतिक्रमण, (4) मार्ग में चलते हुए यदिशंका उपस्थित हो जाए कि मैं अपनी मर्यादा से अधिक-अधिक आ गया, तो पुनः उस शंकित अवस्था में ही उस दिशा में आगे जाना, (5) एक दिशा की सीमा-मर्यादा को घटाकर दूसरी दिशा की सीमा-मर्यादा बढ़ाना, उदाहरणार्थ-पूर्व दिशा में 50 कोस से अधिक बाहर जाकर धनोपार्जन की कोई सम्भावनाएँ नहीं हैं, अतएव पूर्व के शेष 50 कोस और पश्चिम दिशा के 100 कोस मिलाकर पश्चिम में 150 कोस तक जाकर धनोपार्जन करना । साधक अपने व्रत को शुद्ध रूप में परिपालन करने के लिए उपरोक्त दोषों से बचता रहे, यही अपेक्षित है। 7. उपभोग-परिभोगपरिमाणव्रत
साधनात्मक गृही-जीवन के लिए भी यह आवश्यक है कि साधक वैयक्तिक-रूप से अपने जीवन की दैनिक-क्रियाओं, जैसे आहार-विहार अथवा भोगोपभोग पर संयम रखे। जैन-परम्परा इस सन्दर्भ में अत्यधिक सतर्क है। उसमें गृहस्थ-जीवन की दिनचर्या की नितांत छोटी-छोटी बातों में भी संयममूलक व्यवहार को प्रकटित करने का पूरा प्रयास किया गया है। वह गृहस्थ-साधक की भोजन और पानी का मात्रा ही निश्चित करने का प्रयास नहीं करती, वरन् उनमें विविधता की सीमा निश्चित करने का भी प्रयास करती है। व्रती-गृहस्थ स्नान के लिए कितने जल का उपयोग करेगा, किस वस्त्र से अंग पोछेगा, यह भी निश्चित करना होता है। उपभोग-परिभोग-व्रत में गृहस्थ-साधक दैनिक-जीवन के व्यवहार की वस्तुओं की मात्राऔर प्रकार निश्चित करता है। उपभोग के अन्तर्गत वे वस्तुएँ समाविष्ट होती हैं, जिनका एक ही बार उपयोग किया जा सके, जैसे-भोजन, पानी आदि। परिभोग के अन्तर्गत वे वस्तुएँ आती हैं, जिनका उपयोग अनेक बार किया जा सके, जैसेवस्त्र, शय्या आदि। प्रतिक्रमणसूत्र के अनुसार, गृहस्थ-साधक को उपभोग-परिभोग की निम्न 26 वस्तुओं का परिमाण और प्रकार निश्चित करना होता है- (1) उद्रवणिकाविधि- स्नान के पश्चात् भीगे हुए शरीर को पोछने के वस्त्र (तौलिये) का प्रकार और संख्या। (2) दंतधावन की वस्तुओं की संख्या और प्रकार, जैसे-नीम, बबूल या मुलहटी। (3) फलविधि-केश और नेत्र आदिधोने के लिए विशेष प्रकार का फल, जैसे आनन्द श्रावकने बिना गुठली के आँवलों की मर्यादा की थी।(4) अभ्यंगनविधि-मालिश के काम आने वाले तेलों की संख्या और मात्रा । (5) उद्वर्तनविधि-पीठी या उबटन का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org