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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
3. सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखना समत्वयोग है।
सम का अर्थ एकीभाव है और अय का अर्थ गमन है, अर्थात् एकीभाव के द्वारा बहिर्मुखता (परपरिणति) का त्याग कर अन्तर्मुख होना। दूसरे शब्दों में, आत्मा का स्वस्वरूप में रमण करना या स्वभाव-दशा में स्थित होना
ही समत्वयोग है। 5. सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि रखाना समत्वयोग है। 6. सम शब्द का अर्थ अच्छा है और अयन शब्द का अर्थ आचरण है, अतः
अच्छा या शुभ आचरण भी समत्वयोग (सामायिक) है।18 नियमसार और अनुयोगद्वारसूत्र20 में आचार्यों ने इस समत्व की साधना के स्वरूप का बहुत ही स्पष्ट वर्णन किया है। सर्व पापकर्मों से निवृत्ति, समस्त इन्द्रियों का सुसमाहित होना, सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव एवं आत्मवत् दृष्टि, तप, संयम और नियमों के रूप में सदैव ही आत्मा का सान्निध्य, समस्त राग और द्वेषजन्य विकृतियों का अभाव, आर्त एवं रौद्र चिन्तन, हास्य, रति, अरति, शोक, घृणा, भय एवं कामवासना आदि मनोविकारों की अनुपस्थिति और प्रशस्त विचार ही आर्हत्-दर्शन में समत्व का स्वरूप हैं। जैन-आगमों में समत्वयोगका निर्देश
जैनागमों में समत्वयोग सम्बन्धी अनेक निर्देश यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं, जिनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं। आर्य महापुरुषों ने समभाव में धर्म कहा है। साधक न जीने की आकांक्षा करे और न मरने की कामना करे। वह जीवन और मरण-दोनों में किसी तरह की आसक्ति नरखे, समभाव से रहे। शरीर और इन्द्रियों के क्लान्त होने पर भी साधक समभाव रखे। इधर-उधर गति एवं हलचल करता हुआ भी साधक निंद्य नहीं है, यदि वह अन्तरंग में अविचल एवं समाहित है, अतः साधक मन को ऊँचा-नीचा (डांवाडोल) न करे ।24 साधक को अन्दर और बाहर सभी ग्रन्थियों (बन्धनरूप गाँठों) से मुक्त होकर जीवन-यात्रा पूरी करनी चाहिए। जो समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखता है, वही श्रमण है। समता सेही श्रमण कहलाता है।27 तणऔर कनक (स्वर्ण) में जब समान बुद्धि (समभाव) रहती है, तभी उसे प्रव्रज्या कहा जाता है। जो न राग करता है, न द्वेष, वही वस्तुतः मध्यस्थ (सम) है, शेष सब अमध्यस्थ हैं, अतः साधक सदैव विचार करे कि सब प्राणियों के प्रति मेरा समभाव है, किसी से मेरा वैर नहीं है, क्योंकि चेतना (आत्मा) चाहे वह हाथी के शरीर में हो, मनुष्य के शरीर में हो या कुन्थुआ के शरीर में हो, चेतन-तत्त्व की दृष्टि से समान ही है।" इस प्रकार, जैन आचार-दर्शन का निर्देश यही है कि आन्तरिक-वृत्तियों में तथा सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण आदिपरिस्थितियों में सदैव समभाव रखना चाहिए और जगत्
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