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________________ समत्वयोग इसी संघर्ष की समाप्ति के लिए और विषमताओं से ऊपर उठने के लिए समत्वयोग की साधना आवश्यक है। समत्व-योग राग-द्वेष-जन्य चेतना की सभी विकृतियाँ दूर कर आत्मा को अपनी स्वभाव-दशा में अथवा उसके अपने स्व-स्वरूप में प्रतिष्ठित करता है। जैनधर्म में समत्व-योगकामहत्व समत्व-योग के महत्व का प्रतिपादन करते हुए जैनागमों में कहा गया है कि व्यक्ति चाहे दिगम्बर हो या श्वेताम्बर, बौद्ध हो अथवा अन्य किसी मत का, जो भी समभाव में स्थित होगा, वह निस्संदेह मोक्ष प्राप्त करेगा। एक आदमी प्रतिदिन लाख स्वर्ण-मुद्राओं का दान करता है और दूसरा समत्व-योग की साधना करता है, किन्तु वह स्वर्ण-मुद्राओं का दानी व्यक्ति समत्व-योग के साधक की समानता नहीं कर सकता।10 करोड़ों जन्म तक निरन्तर उग्र तपश्चरण करने वाला साधक जिन कर्मों को नष्ट नहीं कर सकता, उनको समभाव का साधक मात्र आधे ही क्षण में नष्ट कर डालता है।11 चाहे कोई कितनाही तीव्र, तप तपे, जप जपे अथवा मुनि-वेश धारण कर स्थूल क्रियाकाण्ड-रूप चारित्र का पालन करे, परन्तु समताभाव के बिना न किसी को मोक्ष हुआ है और न होगा। जो भी साधक अतीतकाल में मोक्ष गए हैं, वर्तमान में जारहे हैं और भविष्य में जाएंगे, यह सबसमत्वयोग का प्रभाव है। आचार्य हेमचन्द्र समभाव की साधना को राग-विजय का मार्ग बताते हुए कहते हैं कि तीव्र आनन्द को उत्पन्न करने वाले समभावरूपी जल में अवगाहन करने वाले पुरुषों का राग-द्वेषरूपी मल सहज नष्ट हो जाता है। समताभाव के अवलम्बन सेअन्तर्मुहूर्त में मनुष्य जिन कर्मों का नाश कर डालता है, वे तीव्र तपश्चर्या से करोड़ों जन्मों में भी नहीं नष्ट हो सकते। जैसे आपस में चिपकी हुई वस्तुएँ बांसआदिकी सलाई से पृथक् की जाती हैं, उसी प्रकार परस्पर बद्ध-कर्म और जीव को साधु समत्वभावकी शलाकासे पृथक् कर देते हैं। समभावरूप सूर्य के द्वारा राग-द्वेष और मोह का अंधकार नष्ट कर देने पर योगी अपनी आत्मा में परमात्मा का स्वरूप देखने लगते हैं। जैनधर्म में समत्वयोग का अर्थ समत्वयोग का प्रयोग हम जिस अर्थ में कर रहे हैं, उसके प्राकृत-पर्यायवाची शब्द हैं - सामाइय कया समाहि। जैन-आचार्यों ने इन शब्दों की जो अनेक व्याख्याएँ की हैं. उनके आधार पर समत्व-योग का स्पष्ट अर्थबोध हो सकता है। __ 1. सम, अर्थात् राग और द्वेष की वृत्तियों से रहित मनःस्थिति प्राप्त करना समत्वयोग (सामायिक) है। 2. शम (जिसका प्राकृत रूप भी सम है), अर्थात् क्रोधादि कषायों को शमित (शांत) करना समत्वयोग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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