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________________ समत्वयोग 31 के सभी प्राणियों को आत्मवत् समझकर व्यवहार करना चाहिए। संक्षेप में, विचारों के क्षेत्र में समभाव का अर्थ है-तृष्णा, आसक्ति तथा राग-द्वेष के प्रत्ययों से ऊपर उठना और आचरण के क्षेत्र में समभाव का अर्थ है-जगत् के सभी प्राणियों को अपने समान मानकर उनके प्रति आत्मवत् व्यवहार करना; यही जैन-नैतिकता की समत्वयोग की साधना है। 3. बौद्ध आचार-दर्शन में समत्व-योग बौद्ध आचार-दर्शन में साधना का जो अष्टांगिक-मार्ग है, उसमें प्रत्येक साधनपक्ष का सम या सम्यक् होना आवश्यक है। बौद्ध-दर्शन में समत्व प्रत्येक साधन-पक्ष का अनिवार्य अंग है। पालि भाषा का सम्मा' शब्दसम्और सम्यक्-दोनों अर्थों की अवधारणा करता है। यदि सम्यक् शब्द का अर्थ 'अच्छा' ग्रहण करते हैं, तो प्रश्न यह होगा कि अच्छे से क्या तात्पर्य है ? वस्तुतः, बौद्ध-दर्शन में इनके सम्यक् होने का तात्पर्य यही हो सकता है कियेसाधन व्यक्ति को राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठने की दिशा में कितने सहायक हैं। इनका सम्यक्त्व राग-द्वेष की वृत्तियों के कम करने में है, अथवा सम्यक् होने का अर्थ हैराग-द्वेष और मोह से रहित होना। राग-द्वेष का प्रहाण ही समत्व-योग की साधना का प्रयास है। बौद्ध अष्टांग आर्य-मार्ग में अन्तिम सम्यक् समाधि है। यदि हम समाधिको व्यापक अर्थ में ग्रहण करें, तो निश्चित ही वह मात्र ध्यान की एक अवस्था न होकर चित्तवृत्ति का 'समत्व' है, चित्त का राग-द्वेष से शून्य होना है और इस अर्थ में वह जैन-परम्परा की 'समाहि' (समाधि-सामायिक) से भी अधिक दूर नहीं है। सूत्रकृतांगचूर्णि में कहा गया है कि राग-द्वेष का परित्याग समाधि है। वस्तुतः, जब तक चित्तवृत्तियां सम नहीं होती, तब तक समाधि-लाभ संभव नहीं। भगवान् बुद्ध ने कहा है, जिन्होंने धर्मो को ठीक प्रकार से जान लिया है, जो किसी मत, पक्ष या वाद में नहीं हैं, वे सम्बुद्ध हैं, समद्रष्टा हैं और विषयस्थिति में भी उनका आचरण सम रहता है। बुद्धि, दृष्टि और आचरण के साथ लगा हुआ सम् प्रत्यय बौद्ध दर्शन में समत्वयोग का प्रतीक है, जो बुद्धि, मन और आचरण-तीनों को सम बताने का निर्देश देता है। संयुत्तनिकाय में कहा है, आर्यों का मार्ग सम है, आर्य विषमस्थिति में भीसम का आचरण करते हैं 41 धम्मपद में बुद्ध कहते हैं, जो समत्व-बुद्धि से आचरण करता है तथा जिसकी वासनाएँ शान्त हो गई हैं - जो जितेन्द्रिय है, संयम एवं ब्रह्मचर्य का पालन करता है, सभी प्राणियों के प्रति दण्ड का त्याग कर चुका है, अर्थात् सभी के प्रति मैत्रीभाव रखता है, किसी को कष्ट नहीं देता है, ऐसा व्यक्ति, चाहे वह आभूषणों को धारण करने वाला गृहस्थ ही क्यों न हो, वस्तुतः श्रमण है, भिक्षुक है । जैन-विचारणा में 'सम' का अर्थ कषायों का उपशम है। इस अर्थ में भी बौद्ध-विचारणा समत्वयोग का समर्थन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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