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________________ 306 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन ही अपने को किसी सद्कार्य में नियोजित करना चाहिए'30, अतः जैनधर्म में साधना-पथ पर आरूढ़ होने वाले साधक को स्पष्ट निर्देश है कि वह अपनी क्षमता को तौलकर ही साधना-पथ में अग्रसर हो और साधना के नियमों को उतने ही अंश में स्वीकार करे, जिनका परिपालन प्रामाणिकतापूर्वक कर सके । साधना के मार्ग में आत्मप्रवंचना (धोखादेही) और नियम-भंग स्वीकार नहीं किए जा सकते। मनुष्य साधना के उन्हीं नियमों को स्वीकार करे, जिनका आचरण यथोचित रूप में कर सके। जैनागमों में हमें कहीं भी ऐसा निर्देश नहीं मिलता कि साधक को उसकीआन्तरिकअभिरुचि एवं इच्छा के विपरीत साधना के उच्चतम वर्ग में प्रविष्ट होने पर बल दिया गया हो। उपासकदशांगसूत्र में हम देखते हैं कि साधक आता है और उसे साधना की विभिन्न कक्षाओं के नियमोपनियमों से परिचित कराया जाता है और वह उनमें से अपने सामर्थ्यानुकूल नियमोपनियमों को ग्रहण कर महावीर के साधना-पथ में प्रविष्ट हो जाता है। सारे जैनागमसाहित्य में महावीर का एक भी वाक्यांश ऐसा नहीं, जिसमें उन्होंने साधक को उसकी इच्छा के प्रतिकूल साधना-मार्ग में प्रविष्ट होने के लिए कहा हो। उपासक आनन्द और महावीर का संवाद इस तथ्य को पुष्ट करता है। महावीर के उपदेश को सुनकर आनन्द कहता है"भगवन्! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ-निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य हैं, यथार्थ हैं, तथ्य हैं, मुझे अभीप्सित हैं, अभिप्रेत हैं। हे देवानुप्रिय! आपके पास अनेक राजा, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह मुण्डित होकर, घर छोड़कर मुनि बने हैं, किन्तु मैं उस प्रकार मुण्डित एवं प्रव्रजित होने में समर्थ नहीं हूँ , अतः हे देवानुप्रिय! में आपके पास गृहस्थ-धर्म अंगीकार करना चाहता हूँ।" महावीर प्रत्युत्तर में कहते हैं- “हे देवानुप्रिय! जिस प्रकार सुख हो, वैसा करो, लेकिन विलम्ब मत करो।"31 __इस प्रकार, जैनधर्म साधकको अपनी वैयक्तिक-क्षमता और परिवेश की अनुकूलता के आधार पर ही साधना की गहराई में प्रविष्ट होने का निर्देश करता है। उसमें साधकों की वैयक्तिक-क्षमताओं के अनुकूल साधना की विभिन्न कक्षाएँ निश्चित हैं। यद्यपिवैयक्तिकक्षमता तो प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न हैं, तथापिकुछ स्थितियों में उनका सामान्यीकरण किया जा सकता है। जैसे बौद्धिक-क्षमता में वैयक्तिक-विभिन्नताओं के होते हुए भी अध्यापन की दृष्टि से कक्षाएँ निश्चित की जाती हैं और विद्यार्थियों के वर्ग बनाए जाते हैं, वैसे ही साधनात्मक-जीवन में वैयक्तिक-भिन्नताओं के होते हुए भी सामान्यता के आधार पर साधना की दो प्रमुख कक्षाएँ मानी गई हैं और साधकों के वर्ग बनाए गए हैं। जैन-विचारणा में साधना की एक कक्षा श्रमण-धर्म कही जाती है और दूसरी, गृहस्थधर्म । गृहस्थ-साधना में भी दो स्थूल कोटियाँ हैं, एक में वे साधक आते हैं, जो मात्र श्रुत-धर्म की ही साधना करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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