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________________ गृहस्थ-धर्म 305 पं. आशाधरजी ने अपने ग्रंथ सागार-धर्मामृत में निम्न गुणों का निर्देश किया है(1) न्यायपूर्वक धन का अर्जन करने वाला , (2) गुणीजनों को मानने वाला, (3) सत्यभाषी, (4) धर्म, अर्थ और काम (त्रिवर्ग) का परस्पर विरोधरहित सेवन करने-वाला, (5) योग्य स्त्री, (6) योग्य स्थान (मोहल्ला), (7) योग्य मकान से युक्त, (8) लजाशील, (9) योग्य आहार, (10) योग्य आचरण, (11) श्रेष्ठ पुरुषों की संगति, (12) बुद्धिमान्, (13) कृतज्ञ , (14) जितेन्द्रिय, (15) धर्मोपदेश श्रवण करने वाला, (16) दयालु, (17) पापों से डरने वाला-ऐसा व्यक्ति सागारधर्म (गृहस्थ-धर्म) का आचरण करे। आशाधरजी ने जिन गुणों का निर्देश किया है, उनमें से अधिकांश का निर्देश दोनों पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा किया जा चुका है। ___ उपर्युक्त विवेचना से जो बात अधिक स्पष्ट होती है, वह यह है कि जैन आचारदर्शन मनुष्य-जीवन के व्यावहारिक-पक्ष की उपेक्षा करके नहीं चलता। जैनाचार्यों ने जीवन के व्यावहारिक-पक्ष को गहराई से परखा है और उसे इतना सुसंस्कृत बनाने का प्रयास किया है कि जिसके द्वारा व्यक्ति इस जगत् में भी सफल जीवन जी सकता है। यही नहीं, इन सद्गुणों में से अधिकांश का सम्बन्ध हमारे सामाजिक-जीवन से है। वैयक्तिकजीवन में इनका विकास सामाजिक-जीवन के मधुर सम्बन्धों का सृजन करता है। ये वैयक्तिक-जीवन के लिए जितने उपयोगी हैं, उससे अधिक सामाजिक-जीवन के लिए आवश्यक हैं। जैनाचार्यों के अनुसार, ये आध्यात्मिक-साधना के प्रवेशद्वार हैं। साधक इनका योग्य रीति से आचरण के बाद ही अणुव्रतों और महाव्रतों की साधना की दिशा में आगे बढ़ सकता है। __ अणुव्रत-साधना चारित्रिक या नैतिक-साधना के मूल सिद्धान्त, जिन्हें जैन-दर्शन 'व्रत', बौद्धदर्शन 'शील' और योगदर्शन 'यम' कहता है, सभी साधकों के लिए, चाहे वे गृहस्थ हों अथवा संन्यासी, समान रूप से आवश्यक हैं। ये साधना के सार्वभौमिक आधार हैं। देश, काल, व्यक्ति एवं परिवेश की सीमारेखा से परे हैं। हिंसा, मिथ्या भाषण, चोरी आदि पापकर्म या दुष्कर्म हैं और वे पुण्य या कुशल कर्म नहीं कहला सकते, लेकिन साधनात्मक जीवन-पथ पर चलने की क्षमताएँ व्यक्ति-व्यक्ति में भिन्न हो सकती हैं और ऐसी स्थिति में सभी के लिए साधना के समान-नियम प्रस्तुत नहीं किए जा सकते। एक श्रमण या संन्यासी अहिंसादि का परिपालन जिस पूर्णता से कर सकता है, उसी पूर्णतासे एक गृहस्थ-साधक वे लए आहेसादिका परिपालन सम्भव नहीं है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है 'अपना मनोबल, शारीरिक-शक्ति, श्रद्धा, स्वास्थ्य, स्थान और समय को ठीक तरह से परख कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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