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________________ 304 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन गुणों को प्राप्त करना। (15) धर्मश्रवण करके जीवन को उत्तरोत्तर उच्च और पवित्र बनाना। (16) अजीर्ण होने पर भोजनन करना, यह स्वास्थ्यरक्षा का मूल मन्त्र है। (17) समय पर प्रमाणोपेत भोजन करना, स्वाद के वशीभूत हो अधिक न खाना। (18) धर्म, अर्थ और काम-पुरुषार्थ का इस प्रकार सेवन करना कि जिससे किसी में बाधा उत्पन्न न हो। धनोपार्जन के बिना गृहस्थाश्रम चल नहीं सकता और गृहस्थकाम-पुरुषार्थ काभी सर्वथा त्यागी नहीं हो सकता, तथापि धर्म को बाधा पहुँचाकर अर्थ-काम का सेवन न करना चाहिए। (19) अतिथि, साधु और दीन जनों को यथायोग्य दान देना। (20) आग्रहशील न होना। (21) सौजन्य, औदार्य, दाक्षिण्य आदि गुणों को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होना। (22) अयोग्य देश और अयोग्य काल में गमन न करना। (23) देश, काल, वातावरण और स्वकीय सामर्थ्य का विचार करके ही कोई कार्य प्रारम्भ करना । (24) आचारवृद्ध और ज्ञानवृद्ध पुरुषों को अपने घर आमन्त्रित करना, आदरपूर्वक बिठलाना, सम्मानित करना और उनकी यथोचित सेवा करना। (25) माता-पिता, पत्नी, पुत्र आदि आश्रितों का यथायोग्य भरण-पोषण करना, उनके विकास में सहायक बनना। (26) दीर्घदर्शी होना। किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने के पूर्व ही उसके गुणावगुण पर विचार कर लेना। (27) विवेकशील होना। जिसमें हित-अहित, कृत्य-अकृत्य का विवेक नहीं होता, उस पशु के समान पुरुष को अन्त में पश्चाताप करना पड़ता है। (28) गृहस्थ को कृतज्ञ होना चाहिए। उपकारी के उपकार को विस्मरण कर देना उचित नहीं । (29) अहंकार से बचकर विनम्र होना। (30) लज्जाशील होना। (31) करुणाशील होना। (32) सौम्य होना । (33) यथाशक्ति परोपकार करना। (34) काम, क्रोध, मोह, मद और मात्सर्य-इन आन्तरिकरिपुओं से बचने का प्रयत्न करना और (35) इन्द्रियों को उच्छृखल न होने देना। इन्द्रियविजेता गृहस्थ ही धर्म की आराधना करने की पात्रता प्राप्त करता है। आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रवचनसारोद्धार में भिन्न रूप से श्रावक के 21 गुणों का उल्लेख किया है और यह माना है कि इन 21 गुणों को धारण करने वाला व्यक्ति ही अणुव्रतों की साधना का पात्र होता है। आचार्य द्वारा निर्देशित श्रावक के 21 गुण निम्न हैं7 - (1) अक्षुद्रपन (विशाल हृदयता), (2) स्वस्थता, (3) सौम्यता, (4) लोकप्रियता, (5) अक्रूरता, (6) पापभीरुता, (7) अशठता, (8) सुदक्षता (दानशील), (9) लज्जाशीलता, (10) दयालुता, (11) गुणानुराग, (12) प्रियसम्भाषण या सौम्य-दृष्टि, (13) माध्यस्थवृत्ति (14) दीर्घदृष्टि, (15) सत्कथक एवं सुपक्षयुक्त 28, (16) नम्रता, (17) विशेषज्ञता, (18) वृद्धानुगामी, (19) कृतज्ञ, (20) परहितकारी (परोपकारी) और (21) लब्धलक्ष्य (जीवन के साध्य का ज्ञाता)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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