SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गृहस्थ-धर्म 307 हैं । ऐसा साधक जैन तत्त्वज्ञान को सत्य मानता है और उसपर श्रद्धा भी रखता है, लोकन आचरण नहीं कर पाता है। वह यह तो जानता है कि शुभ क्या है और अशुभ क्या है ? फिर भी वह स्वतः न तो अकुशल का परित्याग करता है और न कुशल का समाचरण। दूसरे गृहस्थ-साधक वे हैं, जो आंशिक रूप में सम्यक्चारित्र की साधना भी करते हैं । उनके लिए जैन-विचारणा में 5 अणुव्रत और 7 शिक्षाव्रत-ऐसी द्वादशी व्रतसाधना का विधान है। श्रमण-साधक के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-महाव्रत कहे जाते हैं, क्योंकि श्रमण-साधक को इनका पूर्ण रूप में पालन करना होता है, लेकिन गृहस्थसाधक के ये व्रत अणुव्रत कहे जाते हैं, क्योंकि गृहस्थ इनका परिपालन आंशिक रूप में करता है। महाव्रत की प्रतिज्ञा पूर्ण एवं निरपेक्ष होती है, जबकि अणुव्रत की प्रतिज्ञा सापेक्ष एवं परिसीमित होती है। आचार्य उमास्वाति के अनुसार, अल्प अंश में विरति अणुव्रत है और सर्वांश में विरति महाव्रत है।32 श्रावक की व्रत-विवेचना में श्वेताम्बर तथा दिगम्बर-परम्पराओंकामतभेदश्रावक के बारह व्रतों की संख्या के सम्बन्ध में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-परम्पराएँ एकमत हैं । श्रावक के इन बारह व्रतों का विभाजन निम्न रूप में हुआ है-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। श्वेताम्बर-आगम उपासकदशांग में पाँचअणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों का उल्लेख है। गुणव्रतों का शिक्षाव्रतों में ही समावेश कर लिया गया है। पाँच अणुव्रतों के नाम एवंक्रम के सम्बन्ध में भी मतैक्य है, लेकिन तीन गुणव्रतों में नाम की एकरूपता होते हुए भी क्रम में अन्तर है। श्वेताम्बर-परम्परा में उपभोग-परिभोगव्रत का क्रम सातवाँ और अनर्थदण्ड-विरमणव्रत का क्रम आठवाँ है, जबकि दिगम्बर-परम्परा में अनर्थदण्ड सातवाँ और उपभोगपरिभोगव्रत आठवाँ है। दोनों परम्पराओं में महत्वपूर्ण अन्तर शिक्षाव्रतों के सम्बन्ध में है। श्वेताम्बर-परम्परा में शिक्षाव्रतोंकाक्रम इस प्रकार से है - 9.सामायिकव्रत, 10. देशावकाशिकव्रत, 11. पौषधव्रत, 12. अतिथिसंविभाग-व्रत । दिगम्बर-परम्परा का क्रम इस प्रकार है 34 - 9. सामायिकव्रत 10. पौषधव्रत, 11. अतिथिसंविभागव्रत, 12. संलेषणाव्रत। दिगम्बर-परम्परा में देशावकाशिक और पौषधव्रत को एक में मिला लिया गया है तथा उस रिक्त संख्या की पूर्ति संलेषणा का व्रत में समावेश करके की गई है। श्वेताम्बर आचार्य विमलसूरि ने पउम चरियं में कुन्दकुन्द के अनुरूप ही विवेचन किया है। तत्त्वार्थसूत्र की श्वेताम्बर-परंपरा के नामों से संगति है, मात्र क्रम का अन्तर है, उसमें श्वेताम्बर-प -परा के दसवें देशावकाशिकव्रत को दूसरा गुणव्रत मानकर सातवाँ स्थान दिया गया है र था श्वेताम्बर-परम्परा के सातवें उपभोगपरिभोगव्रत को तीसरा शिक्षाव्रत मानकर ग्यारहवाँ स्थान दिया गया है तथा श्वेताम्बर - परम्परा के ग्यारहवें पौषधव्रत को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy