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________________ गृहस्थ-धर्म गृहस्थ और श्रमण-साधना का अन्तर उनके व्रतग्रहण की कोटियों के आधार पर भी किया जाता है । श्रमण सभी व्रत नवकोटि सहित ग्रहण करते हैं, जबकि गृहस्थ-साधकों का व्रतग्रहण छः से दो कोटियों के मध्य उनकी सुविधा एवं क्षमता के अनुसार हो सकता है। जैन- विचारणा में व्रतग्रहण की ये कोटियाँ मानी गई हैं 2. मनसा- कारि 5. वाक्कारित 8. काय- कारित गृहस्थ-साधक अनुमोदन की प्रक्रिया से नहीं बच पाता है, अतः उसका व्रतग्रहण से छह कोटियों के मध्य ही होता है, यद्यपि कुछ जैन-सम्प्रदायों ने श्रावक के व्रत - ग्रहण आठ कोटियों की सम्भावना मानी है। गुजरात के स्थानकवासी जैन-सम्प्रदाय में आठ कोटि और छः कोटि के प्रश्न को लेकर दो उपसम्प्रदायों का निर्माण हुआ है। संक्षेप में, इस विवेचना का तात्पर्य यही है कि गृहस्थ और श्रमण की साधना के अन्तर का प्रमुख आधार आचार के बाह्य-पक्ष तक ही अधिक सीमित है । साधना की मूलात्मा या साधना के आन्तरिक पक्ष की दृष्टि से दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है । नैतिक- आदर्शों को आचरण में क्रियान्वित कर पाने में ही गृहस्थ और श्रमण - साधना में अन्तर माना जा सकता है। - 1. मनसाकृत 4. वाक्कृत 7. कायकृत Jain Education International 3. मनसा - अनुमोदित । 6. वाक् – अनुमोदित । 9. काय - अनुमोदित । गृहस्थ-धर्म की विवेचन - शैली जैन - परम्परा में श्रावक-धर्म या उपासक-धर्म का प्रतिपादन तीन विभिन्न शैलियों में हुआ है। उपासकदशांग, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार में श्रद्धा (सम्यक्त्व) ग्रहण, व्रतग्रहण और समाधिमरण ( मरणांतिक अनशन) के रूप में श्रावक-धर्म का प्रतिपादन है। दशाश्रुतस्कन्ध, आचार्य कुन्दकुन्द के चारित्र - प्राभृत, कार्त्तिकेय - अनुप्रेक्षा तथा वसुनन्दिश्रावकाचार में दर्शन-प्रतिमादि 11 प्रतिमाओं के रूप में क्रमशः श्रावक-धर्म का प्रतिपादन है एवं श्रावक-धर्म की उत्तरोत्तर विकास की अवस्थाओं को दिखाया गया है। पं. आशाधरजी ने सागारधर्मामृत में पक्ष, चर्या (निष्ठा) और साधन के रूप में श्रावक-धर्म का विवेचन किया है और उसकी विकासमान दिशाओं को सूचित किया है । वास्तविकता यह है कि इन विवेचन शैलियों में विभिन्नता होते हुए भी विषय-वस्तु समान ही है, अन्तर विवेचना के ढंग में है। वस्तुतः, ये एक-दूसरे की पूरक हैं। प्रस्तुत प्रयास गृहस्थ-साधकों के प्रकारों की विवेचना में गुणस्थान- सिद्धान्त एवं पं. आशाधरजी की शैली का, गृहस्थ-धर्म की विवेचना में आगमिक व्रत - शैली का और गृहस्थ-साधकों के नैतिक-विकास की अवस्थाओं के चित्रण के रूप में प्रतिमाशैली का आश्रय लिया गया है। - 297 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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