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________________ 296 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन प्रसंग में गीता का उपदेश दिया गया, वह इसी बात को स्पष्ट रूप से बताता है कि गीता के उपदेष्टा की दृष्टि में गृहस्थ-धर्म का सम्यक रीति से परिपालन करना ही अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह अर्जुन को संन्यासमार्ग की अपेक्षा कर्ममार्ग में नियोजित करना चाहता है। निष्कर्ष यह है कि यद्यपि तीनों ही आचार-दर्शन गृहस्थ-धर्म और संन्यास-धर्मदोनों के द्वारा ही सिद्धि या निर्वाण की प्राप्ति को सम्भव मानते हैं, तथापि जहाँ जैन और बौद्ध-परम्पराओं का बल संन्यास-मार्ग पर अधिक है, वहाँ गीता कर्मयोग द्वारा गृहस्थजीवन में रहकर ही साधना करने पर जोर देती है। श्रमण और गृहस्थ-साधना में अन्तर साधना के पूर्ण आदर्श के प्रति सतत निष्ठा गृहस्थ और संन्यासी-दोनों से ही समान रूप में अपेक्षित है । सम्यक्दर्शन की दृष्टि से गृहस्थ और श्रमण की साधना में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। जहाँ तक सम्यग्ज्ञान की साधना का प्रश्न है, साधकों में ज्ञानात्मक-योग्यता का अन्तर हो सकता है, लेकिन यह ज्ञानात्मक-योग्यता का अन्तर गृहस्थ और श्रमण के आधार पर श्रमण और श्रावक-साधक में विभेद नहीं किया गया है। गृहस्थ और श्रमणसाधक के विभेद का प्रमुख आधार सम्यक्चारित्र है, सम्यक्चारित्र के भी भावचारित्र और द्रव्यचारित्र-ऐसे दो भेद हैं । यह द्रव्यचारित्र ही गृही-साधना और श्रमण-साधना की विभाजक-रेखा बनाता है। गृहस्थ-साधक भी मानसिक-दृष्टि से प्रशस्त-भावना वाला हो सकता है, लेकिन अपनी परिस्थितियों के वश उनका क्रियात्मक रूप में पालन नहीं कर पाता है या उनका आंशिक रूप में पालन करता है। यहीं उसका श्रमण-साधक से अन्तर है । गृहस्थ और श्रमण-दोनों ही अहिंसा के विचार में पूर्ण निष्ठा रखते हुए भी गृहस्थ-साधक सुरक्षात्मक और औद्योगिक-हिंसा के कुछ रूपों से बच नहीं पाता है, जबकि श्रमणसाधक उसका पूर्ण- रूपेण परिपालन करता है। कषायों का जय, अप्रशस्त मनोभाव (अप्रशस्त लेश्याओं) का परित्याग, प्रशस्त मनोभावों का ग्रहण, आर्त और रौद्र चित्तवृत्ति का परित्याग आदि मानसिक या भावचारित्र की साधना में गृहस्थ और श्रमण समान ही हैं। इतना ही नहीं, षडावश्यक-कर्म और मरणांतिक-संलेखना (समाधिमरण) का विधान भी दोनों के लिए बहुत-कुछ समान ही है। गृहस्थ-उपासक और श्रमण की साधना का महत्वपूर्ण अन्तर क्रमशः उनकी अणुव्रतों एवं महाव्रतों की साधना को लेकर है। उदाहरणार्थ, श्रमण त्रस एवं स्थावर, सभी की हिंसा का परित्याग करता है, जबकि गृहस्थ मात्र संकल्पयुक्त त्रस हिंसा का। श्रमण पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है, जबकि गृहस्थ साधक स्वपत्नी-सन्तोष का व्रत लेता है । श्रमण समग्र परिग्रह का त्याग करता है, जबकि गृहस्थ परिग्रह की सीमा निश्चित करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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