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________________ गृहस्थ-धर्म 295 है, ऐसे अनेक गृहस्थ हो चुके हैं, जिन्होंने निर्वाण प्राप्त किया है। त्रिपिटक में भी कुछ ऐसे सन्दर्भ हैं, जो गृहस्थ के निर्वाण के समर्थक प्रतीत होते हैं, जैसे-गृहस्थ और प्रव्रजित-दोनों ही एक-दूसरे के सहयोग से कल्याणकारी सर्वोत्तम सद्धर्म का पालन करते हैं। “संयुत्तनिकाय में तो उत्तराध्ययन के समान ही कहा गया है, जैसे- "सत्काय के निरोध में जिसने अपना चित्त लगा दिया है, उस उपासक (गृहस्थ) का, आस्रवों से विमुक्त चित्तवाले भिक्षु से कोई भेद नहीं है, ऐसा मैं कहता हूँ। विमुक्ति एक ही है।"15 जैन और बौद्ध-परम्पराएँ श्रामण्य पर बल देती हैं। वे इस विषय में भी एकमत हैं कि गृहस्थ-साधक द्वारा अर्हतावस्था (जीवन-मुक्ति) प्राप्त कर लेने पर या तो वह तत्काल परिनिर्वाण (विदेहमुक्ति) प्राप्त करता है, अथवा संन्यास मार्ग में प्रविष्ट हो जाता है, जैसा कि भरत ने किया था, लेकिन गृहस्थ-जीवन में नहीं रहता है। गीता की दृष्टि में गृहस्थ-धर्म का स्थान ___ इस प्रकार, जैन और बौद्ध-परम्पराएँ इस बात पर स्पष्ट रूप से बल देती हैं कि गृहस्थ-जीवन में जीवन्मुक्ति या अर्हत्-दशा को प्राप्त कर लेने के पश्चात् यदि साधक जीवित रहता है, तो वह गृहस्थ न रहकर नियमतः संन्यास-धर्म को ही स्वीकार कर लेता है। इसके विपरीत, गीता का आचार-दर्शन स्पष्ट रूप से इसे स्वीकार करता है कि जीवन्मुक्ति प्राप्त कर लेने के पश्चात् गृहस्थ-साधक को गृहस्थ-जीवन छोड़ना आवश्यक नहीं रहता है, जीवन्मुक्त गृहस्थावस्था में भी रहकर संसार के व्यवहार करता रहता है। गीता के तीसरे अध्याय में जनकादिके उदाहरणों द्वारा इस कथन की पुष्टि की गई है। गीता के अनुसार, मोक्ष के लिए कर्मयोग (गृहस्थ-धर्म) और कर्म-संन्यास-दोनों ही निष्ठाएँ पूर्वकाल से प्रचलित हैं। गीताकार के अनुसार, जिस साध्य की प्राप्ति एक संन्यासी करता है, उसी साध्य की प्राप्ति एक गृहस्थ-कर्मयोगी भी करता है। गीता के अनुसार, गृहस्थ-धर्म अथवा संन्यास-धर्म-दोनों में से किसी एक का निष्ठापूर्वक सम्यक् रूप से आचरण करने वाला दोनों के ही फल को प्राप्त करता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि गीता में संन्यास-मार्ग और गृहस्थ-मार्ग-दोनों का साधना के लक्ष्य की प्राप्ति की दृष्टि से समान महत्व है। इतना ही नहीं, गीताकार की दृष्टि में कर्म-संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग अधिक महत्वपूर्ण रहा है, तभी तो वह कहता है कि कर्म-संन्यास और कर्मयोग-दोनों ही कल्याणकारक हैं, फिर भी कर्म-संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग अधिक महत्वपूर्ण है। गीता-शास्त्र के उपक्रम, उपसंहार, अपूर्वता आदि की दृष्टि से भी विचार करने पर ऐसा स्पष्ट लगता है कि यद्यपि गीताकार संन्यासमार्ग की अवहेलना नहीं करता, फिर भी उसका पूरा जोर गृहस्थ-जीवन में रहकर अपने-अपने कर्तव्यों का परिपालन करते हुए सिद्धि प्राप्त करने की ओर है। जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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